बुधवार, 7 जनवरी 2015

शान्ति से जीने-मरने दे, वह धर्म



धर्म की एक सर्वसाधारण व्याख्या है कि जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर शान्ति प्रदान करे, उसे धर्म कहते हैं।जीवन में अशान्ति पैदा करने वाली परिस्थितियों के बावजूद जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके कारण क्रमशः सम्पूर्ण शान्ति बिना मांगे मिले, वही धर्म है। जीवन में शान्ति की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है, इसका पता वास्तव में तब चलता है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है। जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग, कुछ ऐसे संयोग उपस्थित होते हैं कि आदमी अपनी सुध-बुध खो बैठता है, मन पर काबू खो बैठता है। उस समय उसकी बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे अशान्ति की आग घेर लेती है। ऐसे समय में कितना भी धृष्ट आदमी क्यों न हो, उसे शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को जो प्राप्त कराए और अशान्ति को दूर करे, वह धर्म है। जो शान्ति से जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है। इतना होने पर भी दुःख की बात यह है कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं कि उन्हें इतने महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव में शान्ति और अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की प्रवृत्ति हमारे यहां लगभग बंद सी हो गई है।

शान्ति पाने का तरीका

सभी जीव शान्ति चाहते हैं, अशान्ति कोई नहीं चाहता, लेकिन शान्ति और अशान्ति के साधन के बारे में अनेक मतभेद हैं। एक जिसे अशान्ति का कारण मानता है, दूसरा उसे शान्ति का साधन मानता है। एक को जिसके योग में शान्ति लगती है, दूसरे को उसी के योग में अशान्ति लगती है। आजकल सभी लोग येन-केन-प्रकारेण अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं, उससे दूसरे को कष्ट पहुंच रहा है, इसकी रत्तीभर चिन्ता उन्हें नहीं है। यह वृत्ति कई बार इंसान को जानवर से भी बदतर बना देती है। विवेकी मनुष्य के मन में होता है कि मुझे जिस तरह अनुकूलता पसंद है और प्रतिकूलता पसंद नहीं है, वैसे सभी जीवों को अनुकूलता अच्छी लगती है और प्रतिकूलता खराब लगती है। इसलिए मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए जो किसी के लिए प्रतिकूल न हो और जिसके कारण किसी को अशान्ति न हो। ऐसी वृत्ति से आपको अवश्य ही शान्ति मिलेगी और धर्म आए बिना नहीं रहेगा, क्योंकि किसी की पसंद में बाधक न बनना हो तो मुझे कैसे जीना चाहिए’, यह भाव पैदा हुए बिना नहीं रहेगा और इससे आज जो मनुष्य, मनुष्य कोटि में आने लायक नहीं रहा है, वह सच्चा मनुष्य बन जाएगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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