सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

धर्म, भावों की निर्मलता पर आधारित है



भावनाओं का आज टोटा हो गया है। दान, शील और तप में भी आज आडम्बर, दिखावा, प्रदर्शन और स्वार्थ घुस गया है। भौतिक आकाँक्षाएं इसमें घुस गई हैं। विशुद्ध रूप से कर्म-क्षय और मोक्ष प्राप्ति की एक मात्र भावना आज तिरोहित हो गई है, क्योंकि धर्म का सही स्वरूप लोग नहीं जानते। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलामी में रुपयों का माल पैसे में बिकता है। ऐसी अधोदशा आज धर्म की हो रही है, इसका हमें अपार दुःख है। आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति (हैसियत) बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं। बढेंगे कहां से जब तक कि मोक्ष पाने की प्रबल भावना और प्रयास नहीं हों? मोक्ष की इच्छा/भावना जहां तक न हो, वहां तक सब धर्म भी औपचारिक, अधर्मरूप ही बनते हैं। अन्तर इतना ही है कि अधर्म सीधा दुःख देता है, जबकि प्रबल भाव रहित धर्म थोडा पुण्य बंध कराकर उस पुण्य के उदयकाल में महापाप का बंध कराकर, बाद में भारी दुःख देता है। धर्म-अधर्म सब प्रायः भावों की निर्मलता के आधार पर होते हैं और भावों की तरतमता, प्रगाढता के आधार पर ही परिणामों की तरतमता, प्रगाढता होती है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें