सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

परोपकार स्व-उपकार के लिए



मैं जो अच्छा कार्य करता हूं, वह मेरी आत्मा के उपकार के लिए ही करता हूं।ऐसी भावना वाले परोपकार के चाहे जितने भी कार्य करें, तो भी उनमें अहंकार नहीं आता। मैं परोपकारीऐसी अहं-वृत्ति उनमें नहीं आती। मैंने अमुक के ऊपर उपकार किया, अमुक गांव में मैंने उपकार किया, अमुक देश में जाकर मैं लोगों को तिराकर आया हूं, ऐसी-ऐसी बातें वह अहंकार-वृत्ति से कभी नहीं बोलता। उसको तो ऐसा ही लगता है कि मैंने जो कुछ अच्छा किया है, वस्तुतः वह अन्य के लिए नहीं, अपितु मेरे स्वयं के भले के लिए ही किया है।इससे यह समझ लें कि स्वोपकार के लिए ही परोपकार करना है। जिसके ऊपर स्वयं ने उपकार किए हों, वह भी अधम बनकर उपकार के बदले अपकार करता हो, तब भी आत्महित के ध्येय वालों को उसके ऊपर दया आती है, क्रोध नहीं आता। वह ऐसा नहीं सोचता कि मैंने इस पर इतना उपकार किया तो भी इसने ऐसी धृष्टता की।वह मानता है कि वस्तुतः मैंने तो अपनी आत्मा पर ही उपकार किया है और स्वयं की आत्मा पर किया उपकार कभी निष्फल नहीं जाता।इस मान्यता के योग से सामने वाला उपकार का बदला अपकार से दे तो भी वह आत्मा समाधिपूर्ण दशा को भोग सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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