शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

मानव जीवन को सार्थक करें!



अल्प-संसारी, शुद्ध-बुद्धि, अहंकार-रहित, सरल और शुद्ध श्रद्धा-सम्पन्न आत्माएं परलोक की साधना एवं आत्म-कल्याण के लिए सुदेव, सुगुरु, सुधर्म और जिनवाणी के अतिरिक्त अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखती। कारण कि परलोक एवं आत्म-कल्याण की विधि जानने के लिए ये ही आधार रूप हैं। परलोक की साधना करने की इच्छा उन्हीं आत्माओं की होती है जो आसन्नभव्य, मतिमान और श्रद्धारूप-धन की धनी हों। इससे यह भी सहज सिद्ध हो जाता है कि परलोक की साधना के स्थान पर भोग और इस लोक की साधना को आगे करने वाली आत्माएं आसन्नभव्य, अल्पसंसारी नहीं हैं और कल्याणकारी शास्त्र-शुद्धमति को धरने वाली भी नहीं और शुद्ध श्रद्धा-सम्पन्न भी नहीं हैं। इस पैमाने पर विचार करिए जरा अपने जीवन पर! जीवनभर आपने लोगों को कितना दुःख बाँटा है? अपनी मूर्खता से जब-जब आपने अपने मन में विकार पैदा किया, तब-तब उसे वैमनस्य से भरा; और केवल मन से ही नहीं, बल्कि वाणी और काया से भी ऐसे दुष्कर्म कर दिए, जिनसे लोग दुःखी, जीव संत्रस्त और संतापित हुए! कितनों के दुःखों का कारण बने आप? कितनों की व्याकुलता का? दुःख ही दुःख तो बाँटा लोगों को आपने! और कितने जन्म-जन्मांतरों से दुःख बांटने का यह क्रम अनवरत रूप से चल रहा है?

अब कहीं कोई पुराना पुण्य जागा, जिसकी वजह से यह सार्वजनीन, अनमोल और मंगलकारी धर्मरत्न आपको प्राप्त हुआ। इस धर्म-संपत्ति ने कितना संपन्न बना दिया है आपको, क्या इसका जरा भी खयाल है आपको? कितनी विपन्नता धुली? कितने विकारों से मुक्ति मिली? कितने दुःखों से छुटकारा मिला? अप्रिय परिस्थिति में भी मुस्कराना आ गया! मन में मैत्री और करुणा की ऊर्मियाँ लहराने लगीं! जीवन धन्य हो उठा। अरे, यही तो सुख है! यही तो सच्चा सुख है!

आओ, बाँटें ऐसा सुख सबको! ऐसा सुख सबको मिले। ऐसा धर्म सबको मिले। जगत में कोई दुखियारा न रहे। सब अपने विकारों से मुक्त हो जाएँ, मन की गाँठें खुल जाएँ, मलिनता दूर हो जाए। सभी निर्वैर हों! निर्भय हों! निरामय हों! निर्विकार हों! निष्पाप हों! निर्वाणलाभी हों! इसीलिए सुदेव-सुगुरु-सुधर्म के प्रति असीम कृतज्ञता और अनन्य निष्ठा भाव रखते हुए, प्राणियों के प्रति असीम मंगल मैत्री रखते हुए, आओ! जन-जन के भले के लिए और अपने भले के लिए भी, हम सभी मिलकर अपनी सम्मिलित शक्ति लगाएँ और ऐसा जीवन जीएँ, जिससे अधिक से अधिक लोग सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की ओर आकर्षित हों! अधिक से अधिक दुखियारे लोग सुदेव-सुगुरु-सुधर्म के माध्यम से जिनवाणी के रस का पान कर सकें और दुःख-मुक्त हो सकें! अपना सुख बाँटने में ही हमारा सुख समाया हुआ है, सबका सुख समाया हुआ है।-सूरिरामचन्द्र

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