रविवार, 11 अक्तूबर 2015

लोभ और तृष्णा दुःख का मूल


स्वभावतः मनुष्य अपने जीवन में सुख-शांति और समृद्धि की कामना करता है। उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण इच्छाओं में से एक है धन और यश की इच्छा और उसे हासिल करने के लिए, उसे पाने के लिए वह प्रत्यन करता रहता है। साधारणतया मनुष्य के प्रत्येक कर्म के पीछे यही अंतःप्रेरणा होती है। सभी महान लोगों का भी यही अभिमत है कि सृष्टि इच्छाओं और आकांक्षाओं से प्रेरित है।

इच्छा रखना मनुष्य का स्वभाव है, परंतु इच्छित फल की प्राप्ति के लिए उसे अमर्यादित और अनैतिक ढंग से कभी भी न तो सोचना चाहिए और न ही कर्म करना चाहिए। मनोवांछित फल पाने के लिए हमारी इच्छा इतनी बलवती नहीं होनी चाहिए कि उचित-अनुचित की विवेक बुद्धि ही नष्ट हो जाए और हम उसे येन-केन-प्रकारेण पाने के लिए तत्पर हो उठें। इसे ही लोभ या लालच कहते हैं।

लोभी व्यक्ति कभी भी सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। सच्चे मनुष्य की अग्निपरीक्षा तो प्रलोभन से होती है। इस प्रकार अनैतिक इच्छा के वश मनुष्य क्रोध, काम, ईर्ष्या और अहंकार का शिकार भी हो जाता है। संयम के चरमोत्कर्ष बिना इच्छा का सर्वथा त्याग मुश्किल है, किंतु वह इतनी अधिक न बढ जाए कि हमारे सोचने-समझने के सामर्थ्य को समाप्त कर लोभवश अनैतिक कर्मों में लिप्त कर दे। मानव की यही स्थिति पशुतुल्य कही जाती है। ऐसी इच्छा त्याज्य है।

मनुष्य के समस्त विकास और पतन में इच्छा का ही हाथ है। जहाँ एक ओर श्रेष्ठ और शुभ इच्छा विकास की तरफ यात्रा करती है, वहीं विवेक शून्य इच्छा पतन, पराभव की ओर अग्रसर होती है। किसी प्रकार के अभाव की अनुभूति मनुष्य के अंदर विफलता का भाव पैदा करती है और इसी कारण मनुष्य में उस वस्तु को पाने की कामना जागृत होती है। यही कामना मनुष्य की इच्छा कहलाती है।

जब किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा स्थिति के प्रति लोभ-इच्छा-तृष्णा जागती है और आसक्ति बढती है, तब उसे प्राप्त करने के लिए अथवा प्राप्त हुई हो तो अधिकार में रखने के लिए हम बुरे-से-बुरा तरीका अपनाने पर उतारू हो जाते हैं। चोरी-डकैती, झूठ-फरेब, छल-छद्म, प्रपंच-प्रवंचन, धोखाधडी आदि सब कुछ अपनाते हैं। अपने इस पागलपन में मन की सरलता खो देते हैं। साध्य हासिल करने की आतुरता में साधनों की पवित्रता को खो देते हैं।

अंतहीन समुद्र की लहरों की तरह इच्छाओं पर सवार मनुष्य जीवन सागर में भटकता रहता है, जो उसकी आंतरिक चेतना को छिन्न-भिन्न कर देता है। इसलिए कहते हैं- अनियंत्रित इच्छा मनुष्य को अच्छा नहीं बनने देती। सभी बुराइयों की जड यही इच्छा है। इच्छा से दुःख आता है, इच्छा से भय आता है। जो इच्छाओं से मुक्त है, वह न दुःख जानता है और न भय।-सूरिरामचन्द्र

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