सोमवार, 22 मई 2017

अपने दोष छिपाने के लिए दूसरे की निंदा

इस दुनिया में स्वयं के बचाव के खातिर, स्वयं के दुष्कर्म को ढँकने के खातिर, स्वयं के पाप को छुपाने की खातिर, ऊॅंची कोटि के महात्माओं को भी कल्पित रीति से कलंकित करने वाले कहां नहीं होते। आज तो अधिकांशतः यह दशा हो गई है कि स्वयं के दोष देखते नहीं और दूसरों के दोष खोजे अथवा कल्पित किए बिना रहना नहीं।
पिता और पुत्र के मध्य में कोई, जो पुत्र को शिक्षा देने जाए तो पुत्र पिता के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। और जो पिता को शिक्षा देने के लिए कोई जाए तो वह पुत्र के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है। कारण कि दोनों को स्वयं के दोष छिपाने हैं। इस प्रकार का आज पति-पत्नी के बीच में, भाई-भाई के बीच में, माता-पुत्री के बीच में, मित्र-मित्र के बीच में, सगे-संबंधियों के बीच में प्रायः सर्वत्र कमोबेश प्रमाण में चल रहा है। राजनीति का तो मानो यह अविभाज्य अंग हो गया है.
इस दशा में धर्म के द्रोही सुसाधुओं के ऊपर भी कल्पित कलंक चढाते हैं, ईमानदार लोगों पर भी कलंक लगाकर उन्हें बदनाम करने की साजिश रचें तो इसमें आश्चर्य क्या है..? घर से और बाहर से अधिकांश भाग में उनको ऐसा ही शिक्षण मिला है कि स्वयं के दोष छिपाने के लिए अथवा किसी भी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए पराए व्यक्ति पर कल्पित दोषारोपण करना। आज कितनी ही बार कुशिष्य भी क्या करते हैं...? स्वयं उद्दण्ड बनकर गुरु की आज्ञा में न रहते हों, किन्तु कोई पूछे तो स्वयं खराब न कहलाने की दृष्टि से, वे गुरु पर भी कल्पित दोष लगाते हैं...। कितने ही पतित भी ऐसा धंधा करते रहते हैं। स्वयं पतित हुआ है, किन्तु निन्दा दूसरे साधुओं की और गुरु की करते हैं। साधु और गुरु खराब थे, इसीलिए मुझे साधुपना छोडना पडा’, ऐसा कहने वाले पतित भी हैं...।
ऐसे स्वयं के बचाव के लिए कीर्ति की तुच्छ अभिलाषा के अधीन बनकर, पूर्णतया सच्ची भी अपकीर्ति से डरकर स्वयं के उपकारियों पर पूर्णतः झूठे आरोप-कलंक डालते हुए भी वे घबराते नहीं हैं। स्वयं के पतन को युक्तियुक्त बताने के लिए कल्याणकारी मार्ग की निन्दा करने वाले भी हैं। इससे भी खराब वस्तु तो यह है कि ऐसों के ऐसी पूर्णतः दाम्भिक और झूठी बातों को ताली बजाकर बिरदाने वाले पीठ थपथपाने वाले भी मिले रहते हैं। इसके पीछे ईर्ष्या एक बहुत बडा कारण है।

स्वयं का क्षुद्र स्वार्थ-साधन करने के लिए सामने वाले का कितना नुकसान होगा, धर्म की कितनी हानि होगी, यह देखने की या विचारने की बुद्धि उन स्वार्थियों के पास नहीं होती है। वैसे स्वार्थी स्वयं के भविष्य का भी विवेक पूर्वक विचार नहीं कर सकते। उनकी दृष्टि मात्र इस लोक के, दुनिया के स्वार्थ पर ही टिकी रहती है। ऐसी स्वार्थ-परायणता इस आर्यदेश में भी दिन-प्रतिदिन बढती जाती है और इससे सच्चरित्र को और सद्विचारों को देशनिकाला मिलता जा रहा है।-सूरिरामचन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें