आज ढोंग,
दम्भ, प्रपंच इतना बढा है कि जिसकी कोई सीमा ही
नहीं। यहां कुछ और,
वहां कुछ और! वाणी, वचन और बर्ताव में मेल ही
नहीं। यह आज की दशा है। इसीलिए ही मैं कहता हूं कि ‘हम गुण के रागी अवश्य
हैं, परन्तु गुणाभास के तो कट्टर विरोधी ही हैं।’ हम जहां त्याग देखें, वहां
हमें आनंद अवश्य हो,
परंतु वह त्याग यदि सन्मार्ग पर हो तो ही उस त्याग के उपासक
की प्रशंसा करें,
अन्यथा सत्य को सत्य के रूप में जाहिर करें और उसके लिए समय
अनुकूल न हो तो मौन भी रहें। ‘कौनसा त्यागी प्रशंसापात्र?’ यह
बात गुणानुरागी को अवश्य सोचनी चाहिए। आज इस बात को नहीं सोचने वाला आसानी से
गुणाभास का प्रशंसक बन जाए वैसा माहौल है। सम्यग्दृष्टि की एक नवकारशी को
मिथ्यामतियों का हजारों वर्ष का तप भी नहीं पहुंच सकता, यह
एक निर्विवाद बात है। इसलिए मैं अनुरोध करता हूं कि कैसी भी स्थिति में प्रभुमार्ग
से हटा नहीं जाए,
उसकी सावधानी रखना सीखें। श्री अरिहंत देव जैसे दुनिया में
कोई देव नहीं हैं। श्री जैनशासन में जो सुसाधु हैं, वैसे दुनिया के किसी
भाग में नहीं हैं और धर्मतत्त्व के विषय में कोई भी दर्शन, श्री
जैनदर्शन द्वारा प्ररूपित धर्मतत्त्व के साथ स्पर्द्धा कर सके वैसा नहीं है। ‘विश्व
में एक श्री जैनदर्शन ही सर्वश्रेष्ठ है।’ यह सत्य कहीं भी और कभी भी
सिद्ध हो सकने योग्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 31 मई 2015
शनिवार, 30 मई 2015
गुणानुराग के नाम पर उन्मार्ग की पुष्टि
उन्मार्गी में रहे हुए गुण की प्रशंसा से उन्मार्ग की पुष्टि होती है; क्योंकि
उस आकर्षण से दूसरे उसके मार्ग पर जाते हैं। ‘ऐसा व्यक्ति भी उसकी प्रशंसा
करता है’, यों समझकर जनता उसके पीछे घसीटी जाती है। परिणाम स्वरूप अनेक आत्माएं उन्मार्ग
पर चढती हैं,
अतः ‘गुणानुराग के नाम से मिथ्यादृष्टि की
प्रशंसा अवश्य तजने योग्य है।’ गुण यह प्रशंसायोग्य है। यह बात नितांत
सत्य है, परंतु उसमें भी विवेक की अत्यंत ही आवश्यकता है। मिथ्यामतियों की प्रशंसा के
परिणाम से सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व की प्राप्ति सहज है। ‘गुण
की प्रशंसा करने में क्या हर्ज है?’ इस प्रकार बोलने वालों के लिए
यह वस्तु अत्यंत ही चिंतनीय है। गुणानुराग के नाम से मिथ्यामत एवं मिथ्यामतियों की
गलत मान्यताओं की मान्यता बढ जाए, ऐसा करना यह बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु
बुद्धिमत्ता का घोर दिवाला है। घर बेचकर उत्सव मनाने जैसा यह धंधा है। ‘गुण
की प्रशंसा’,
यह सद्गुण को प्राप्त और प्रचारित करने के लिए ही उपकारी
पुरुषों ने प्रस्तावित की है। उसका उपयोग सद्गुणों के नाश के लिए करना, यह
सचमुच ही घोर अज्ञानता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 29 मई 2015
चोर का दान प्रशंसनीय नहीं
बहुत-से ऐसे लोग हैं कि, ‘गुणानुराग’ के नाम से ‘मिथ्यादृष्टि
की प्रशंसा’ कर स्वयं के और दूसरों के भी
सम्यक्त्व को पलीता लगाने का काम आज बडे जोरशोर से कर रहे हैं। दुःख तो यह है कि
इस पाप में कई वेशधारी भी अपने हाथ सेक रहे हैं। बहुतों के गुण ऐसे भी होते हैं कि
जिन्हें देखकर आनंद होता है, परन्तु उन्हें बाहर बतलाए जाएं तो बतलाने
वाले की प्रतिष्ठा को भी धब्बा लगे। चोर का दान, उसकी भी कहीं प्रशंसा
होती है? दान तो अच्छा है,
परन्तु चोर के दान की प्रशंसा करने वाले को भी दुनिया चोर
का साथी समझेगी। दुनिया पूछेगी कि, ‘अगर वह दातार है तो चोर क्यों? जिसमें
दातारवृत्ति हो,
उसमें चोरी करने की वृत्ति क्या संभव है? कहना
ही पडेगा कि,
‘नहीं’। उसी प्रकार क्या वेश्या के सौंदर्य की
प्रशंसा हो सकती है?
सौंदर्य तो गुण है न? वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा
करने वाला सदाचारी या व्यभिचारी? विष्ठा में पडे हुए चंपक के पुष्प को
सुंघा जा सकता है?
हाथ में लिया जा सकता है? इन सब प्रश्नों पर
बहुत-बहुत सोचो,
तो अपने आप समझ में आएगा कि, ‘खराब स्थान में पडे हुए
अच्छे गुण की अनुमोदना की जा सकती है, परंतु बाहर नहीं रखा जा सकता।’ जो
लोग गुणानुराग के नाम से भयंकर मिथ्यामतियों की प्रशंसा करके मिथ्यामत को फैला रहे
हैं, वे घोर उत्पात ही मचा रहे हैं और उस उत्पात के द्वारा अपने सम्यक्त्व को फना
करने के साथ-साथ अन्य के सम्यक्त्व को भी फना करने की ही कार्यवाही कर रहे हैं।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 28 मई 2015
विरागी कौन?
विराग का अर्थ राग का सर्वथा अभाव हो; ऐसा नहीं। राग का सर्वथा अभाव
तो श्री वीतराग को होता है। जीव जहां तक वीतराग नहीं बनता, वहां
तक जीव में राग तो रहता ही है। परंतु जीव में राग होने पर भी वह विरागी हो सकता
है। संसार के सुख की अति आसक्ति बुरी लगे; यह आसक्ति वर्तमान में भी
दुःखदायक है और भविष्य में भी दुःखदायक है, ऐसा लगे तो यह भी विरागभाव
है। राग इतना तो घटा न?
संसार के सुख के अति राग के प्रति तो अरुचि उत्पन्न हुई न? बाद
में, विराग बढने पर ऐसा लगता है कि ‘संसार का सुख चाहे जैसा हो, परंतु
वह सच्चा सुख नहीं ही है।’
इसमें भी राग तो घटा न? फिर ऐसा लगे कि ‘संसार
का सुख, दुःख के योग से ही सुखरूप लगता है; सुखरूप लगने पर भी वह दुःख से
सर्वथा मुक्त नहीं है और उसका भोग पाप के बिना नहीं हो सकता, इसलिए
यह भविष्य के दुःख का भी कारण है; अतः संसार का सुख वस्तुतः भोगने लायक ही
नहीं है।’ तो इसमें भी राग घटा या नहीं? जैसे-जैसे संसार के सुख का राग घटता जाता
है, वैसे-वैसे विराग का भाव बढता जाता है। इस प्रकार संसार के सुख के प्रति राग का
घटना ही विराग का भाव है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 27 मई 2015
भाग्यशाली कौन?
आप अपनी भाग्यशालिता को सफल कर रहे हैं या नहीं? कर रहे हैं तो वह
कितने अंश में सफल कर रहे हैं? यह सत्य विचार और निर्णय आपको करना चाहिए।
परन्तु, ऐसा विचार कब हो सकता है? आपको अपनी इस भाग्यशालिता का सही भान हो
तब न? आप अपनी भाग्यशालिता किसमें मानते हैं? पास में बहुत लक्ष्मी हो, शरीर
निरोगी हो, पत्नी अच्छी मिली हो,
संतान भी अच्छी हो, लोग आपके प्रति आदरभाव प्रकट
करते हों, आप जहां जाएं वहां आपकी पूछ होती हो, आपको कोई अप्रिय नहीं बोल
सकता हो और आपका सामना करने वाले को आप बर्बाद कर सकते हों, विषयराग
जनित और कषायजनित ऐसी जो-जो इच्छाएं आपके मन में पैदा होती हों और वे इच्छाएं पूरी
होती हों, आप चाहे आदर के पात्र न भी हों तब भी धर्म स्थानों में आपको आदर मिलता हो, तो
ही आपको लगता है कि ‘मैं भाग्यशाली हूं।’
इन सब भाग्यशालिताओं के सिवाय और कोई भाग्यशालिता आपकी
दृष्टि में आती है क्या?
ऐसी भाग्यशालिता ही सच्ची भाग्यशालिता लगे तो इन
भाग्यशालिताओं के निमित्त से आप दुर्भाग्यशालिता को पाए बिना नहीं रहेंगे, क्योंकि
यह मिथ्यात्वी मान्यता है। आपकी सही व सच्ची भाग्यशालीता तो यह है कि आपको जैन कुल
मिला, जिसके कारण मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक सामग्री की उपलब्धता आपको सहज है; किन्तु
सवाल यह है कि आपको उसकी कद्र कितनी है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
हम कहां जा रहे हैं?
मैं यहां किसी दलविशेष की बात नहीं कर रहा हूं। लेकिन, यह आज की कडवी सच्चाई है कि देश का सबसे बडा संकट भ्रष्ट और
चरित्रहीन नेतृत्व है; फिर भी यहां की जनता इन
भ्रष्ट नेताओं का विरोध करने की बजाय उनके तलवे चाटने में लगी है। देश की प्रति व्यक्ति
आय बहुत नीचे है, पर यहां के अधिकारी और
कर्मचारी मेहनत व ईमानदारी से काम करने की बजाय दबाव डालकर अपनी मांगों को मनवाने में
लगे हैं या भ्रष्ट उपायों द्वारा धनार्जन करने में जुटे हैं। यहां के राजनीतिबाजों
की वैचारिक प्रौढता केवल स्वार्थ पूर्ति के लिए दलबदल करने, नए राजनीतिक गठजोड बनाने, विदेशों की सैर करने या दलों में जोडतोड करने तक सीमित है।
जहां तक राष्ट्रीय चरित्र का प्रश्न है उद्योगपति से लेकर साधारण
श्रमिक तक, प्रधानमंत्री से लेकर गांव के
चौकीदार तक, विश्वविद्यालय के कुलपति से लेकर
साधारण अध्यापक तक प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की सिद्धि में लगा
है। बात राष्ट्र की करते हैं, किन्तु
राष्ट्रहित की चिन्ता किसी को नहीं है।
आज समाज में श्रम का आदर खत्म होने के साथ-साथ ऐसे जीवन मूल्यों
की स्थापना हो गई है, जिनमें श्रम और ईमानदारी
से जीवन व्यतीत करने के स्थान पर निकम्मे, अन्यायी, चालाक, भ्रष्टाचार व हेराफेरी से धनवान बने हुए लोग ही समाज के नेता
व आदर के पात्र हो गए हैं। आज के जीवन आदर्शों के अनुसार अदालत में झूठ बोलना झूठ नहीं
है, राजनीति में झूठ बोलना झूठ नहीं
है, व्यापार में झूठ बोलना झूठ नहीं
है; तो फिर झूठ कहां है? यदि अदालत में झूठ झूठ नहीं है तो न्याय की आशा कैसे की जा सकती
है? यदि राजनीति को यह कहकर टाल दिया
जाए कि राजनीति में सब चलता है तो प्रजातंत्र, सामाजिक न्याय, समानता, कुशल चरित्रवान नेतृत्व कहां से आएगा? यदि व्यापार में झूठ बोलना, चोरी करना, रिश्वत लेना या देना और मिलावट
आदि करना सामाजिक रूप से मान्य व्यवहार बन जाएगा तो राष्ट्रीय चरित्र का प्रश्न ही
कैसा?
लोग मोक्ष या स्वर्ग में जाने अथवा अधिक पाने के लोभ से मंदिर
जाते हैं, तिलक लगाते हैं, किन्तु अपनी दुकान या कार्यालय में आ जाते हैं तो यदि दुकानदार
हैं तो शाम तक निर्भीक होकर खाद्य पदार्थों में मिलावट करते हैं, यदि दवा विक्रेता हैं तो दवाइयों में मिलावट करते हैं, यदि ठेकेदार हैं तो सीमेंट, लोहे व अन्य पदार्थों में हेराफेरी करते हैं, यहां तक कि राष्ट्र की सुरक्षा के निर्माण कार्यों में भी धोखा करने से नहीं हिचकिचाते, यदि सरकारी अधिकारी हैं तो खुलकर रिश्वत लेते हैं, अध्यापक हैं तो या तो पाठ्यपुस्तकों के धंधे में लगे रहते हैं
अथवा घरों पर ट्यूशन पढाते हैं, डॉक्टर
हैं तो सेवा का नहीं लूट का धंधा करते हैं और फिर यही वे लोग हैं जो समाज में धनी होने
के कारण बडे लोग कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो अपवादों को छोडकर आज
भारतवासी विश्वभर में सबसे अधिक कामचोर, सबसे अधिक स्वार्थी, सबसे
अधिक प्रपंची, सबसे अधिक चरित्रहीन हो गए हैं
तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह बहुत ही गंभीर लांछन है, इस आर्यदेश व आर्य संस्कृति के लिए।
पतन की इस परिस्थिति में सबसे दुःखद बात यह है कि आज के नेता
नए मूल्यों और नए समाज की स्थापना के बजाय समाज के नैतिक पतन का अनुचित लाभ उठा रहे
हैं। इस प्रकार वे पतन की प्रक्रिया को और आगे बढा रहे हैं।
सोचिए जरा कि हम कहां जा रहे हैं? आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज का अग्रणीय वर्ग श्रम की महत्ता को समझे और नैतिक
मूल्यों की स्थापना करे।
मंगलवार, 26 मई 2015
लू से 2 हजार मरे; सरकार जश्न में मग्न
इस बार देश में प्रचण्ड गर्मी और लू के थपेडों से पिछले एक सप्ताह
में ही दो हजार से ज्यादा लोग मर गए हैं, जबकि हजारों लोग, जिनमें बडी संख्या में
बच्चे और महिलाएं भी हैं, इस तपिश
के कारण विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होकर मौत के मुहाने पर पडे हैं। अकेले आन्ध्र
व तेलंगाना में ही 1100 से ज्यादा
लोगों के मरने की खबर है। ये खबरें बहुत ही सतही हैं। माजरा इससे कई गुना अधिक गंभीर
है। टीवी पर मरने वालों या उनके परिवार वालों के दृश्य आप देखें तो वे हृदयविदारक
दृश्य बहुत कुछ कहते हैं। लेकिन; विडम्बना
यह है कि हमारी सरकार अपना एक साल पूरा होने के जश्न में इतनी मगन है कि मरनेवालों
की लाशें और उनके परिवार वालों के हालात उसे दिखाई नहीं देते। करोडों रुपया जश्न में
पूरा होगा, किन्तु उन परिवारों के पेट में
अन्न का दाना नहीं जा सकेगा। विपक्ष भी सरकार के जश्न और दावों को झुठलाने के लिए अलग
से जश्न करने में लगा है। आम आदमी की परवाह किसको है?
इस देश में जब ज्यादा गर्मी पडती है तब भी लोग मरते हैं और ज्यादा
सर्दी पडती है तब भी लोग मरते हैं। गर्मी व सर्दी के समाचारों के साथ अकाल मरनेवालों
का समाचार भी अवश्य आता है। कभी किसी नेता या बडे अफसर के गर्मी अथवा सर्दी से मरने
के समाचार सुने हैं? वास्तव में गर्मी या सर्दी
से कोई नहीं मरता, परन्तु जब तन ढकने को कपडा
न हो, पेट भरने के लिए मुट्ठी भर दाने
न हों और लू से सिर छिपाने के लिए कोई छत न हो, तो कोई भी बहाना जिंदगी को मौत में बदलने के लिए काफी है।
भारत के कुछ स्थानों पर एक दृश्य देखा जा सकता है। होटलों में
जूठी प्लेटें साफ करके उनकी बची जूठन जब-जब बाहर फेंकी जाती है, तो इंसानों के बच्चे कुत्तों की तरह झपटकर उन जूठे दानों से
अपना खाली पेट भरते हैं। स्वर्ग में बैठी आजादी के शहीदों की आत्माएं जब देश की 70 साल की आजादी के बाद भी यह स्थिति देखती होगी तो क्या सोचती
होगी, यह सोचकर रगों का खून जमने लगता
है। तथाकथित सभ्य समाज के वैवाहिक भोजों में जितना अन्न पेट में जाता है, उतना ही जूठन में भी जाता है; यह संवेदनहीनता, विवेकशून्यता की पराकाष्ठा
है।
सोचिए जरा, हम कहां
जा रहे हैं?
आज पिता किस बात की सावधानी रखते हैं?
आजकल, उच्च समझे जानेवाले कुलों में भी कैसी स्थिति पैदा होती जा रही है? लडका
धर्म करता है,
या धर्म करने के लिए तैयार होता है तो पिता उसमें बाधक बनता
है, परन्तु लडका धन और भोग के लिए चाहे जो उल्टे-सीधे काम करे, तो
भी उसका पिता अन्याय-अनीति करते हुए बेटे को नहीं रोकता है। अब तो ऐसा भी कह सकता
हूं कि न रोक सकने का वातावरण पैदा हो गया है। पहले अच्छे कुटुम्बों में यह स्थिति
थी कि ‘धर्म करने का मन होना,
कोई सरल बात नहीं है, ऐसा वे जानते थे। इसलिए लडके
को धर्म करने का मन होने की बात जानकर उन्हें प्रसन्नता होती थी। जबकि वे ही
मां-बाप आदि लडका धन-भोग के विषय में अन्याय-अनीति के मार्ग पर न चला जाए, इसकी
सावधानी रखते थे। आज भी कतिपय मां-बाप लडकों की चौकीदारी तो करते हैं, परन्तु
वह केवल इसलिए करते हैं कि ‘अपना कमाया हुआ धन लडके खर्च न कर दें !’ लडका
अपना कमाया धन अच्छे मार्ग में खर्च करे, इसमें भी आपत्ति! उनमें धन की
गरमी होती है। यदि वे धर्म की गरमी का अनुभव करें तो उनमें उदारता आ सकती है।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
सोमवार, 25 मई 2015
जैन कुल की प्रत्येक बात में वैराग्य होता है
जैन कुल में जो जन्मा हो और जिसमें जैन कुल के संस्कार हों, उसमें
वैराग्य न हो,
ऐसा नहीं हो सकता। जैन कुल में तो माता स्तनपान के साथ ही
वैराग्य का पान कराती है,
ऐसा कहा जा सकता है। क्योंकि, जैनकुल की प्रत्येक
बात में प्रायः वैराग्य का प्रभाव होता है। खाने की बात हो या पीने की बात हो, लाभ
की बात हो या हानि की बात हो, भोगोपभोग की बात हो या त्याग-तप की बात हो, जन्म
की बात हो या मरण की बात हो, जैनकुल में होने वाली प्रायः प्रत्येक बात
में वैराग्य के छींटे तो होते ही हैं। जैन जो बोलते हैं, उससे
समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि वैराग्य का प्रभाव है। आज यह अनुभव विरल होता जा
रहा है, यह दुर्भाग्य है। अन्यथा पुण्य, पाप, संसार
की दुःखमयता,
जीवन की क्षणभंगुरता, वस्तुओं की नश्वरता, आत्मा
की गति, मोक्ष आदि की बातों का प्रभाव प्रायः जैन की प्रत्येक बात में होता है।
क्योंकि उसके हृदय में यही (वैराग्य) होता है। अच्छा या बुरा जो कुछ भी होता है, उसके
विषय में अथवा कुछ नया करने का अवसर आए, उस समय जो बात होती है, उसमें
सच्चे जैन जो बात करने वाले होते हैं, तो वैराग्य के छींटे उसमें न
हों, यह नहीं हो सकता। संसार का सुख मिलने की स्थिति में, ‘संसार
के सुख में और संसार के सुख की सामग्री में बहुत आसक्त नहीं होना चाहिए’, ऐसी
बात होती है। जब शोक की स्थिति होती है, तब शोक की अपेक्षा उसकी
नश्वरता आदि की बात होती है। यह वैराग्य के घर की बात है न? -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
रविवार, 24 मई 2015
सांसारिक रस दुर्गति का कारण
यह सांसारिक सुख चाहे जितना मिले, चाहे जितने प्रमाण में मिले, परन्तु
अन्त में जीव का कल्याण इससे नहीं होता। यह सुख सदा रहने वाला नहीं। या तो यह चला
जाएगा, या जीव को इसे छोडकर जाना पडेगा। साथ ही इस सुख को प्राप्त करने में, भोगने
में, रक्षण करने में जो-जो हिंसादि पाप होते हैं, उनका फल इस जीव को
भोगना ही पडता है। पाप का फल दुःख है, अर्थात् इस सुख के भोग में
अपने आपको भूले,
आत्मा को निर्मल बनाने के लिए संवर और निर्जरा का काम भूले, तो दुःखी
होना निश्चित है। इस जन्म में यह भौतिक सुख और अगले जन्म में महादुःख, यह
भी संभव है। इस प्रकार जीव भटका करे और सुख के लिए बिलखता रहे, इसकी
अपेक्षा ऐसा करना चाहिए कि जिससे भटकना ही बंद हो जाए। जीव को अनुभव से, विचार
करते-करते ऐसा महसूस होना चाहिए, ‘इस सुख के पीछे हम चाहे जितने पडे रहें, इसमें
जीव का स्थाई लाभ होने वाला नहीं है। इतना ही नहीं, इस सुख का रस भी जीव
को नरक में गिरा सकता है और निगोद में भी पटक सकता है। इस सुख के रस बिना ऐसा पाप
नहीं बंधता जो जीव को नरक और निगोद में पटक सके। इसलिए जो कोई जीव नरक में या
निगोद में गए,
जाते हैं और जाएंगे, उसमें प्रधान कारण सांसारिक
सुख का रस ही है। अब तक इस जीव का जो कुछ बुरा हुआ, वह संसार सुख के रस के
कारण ही हुआ। सदा के लिए सम्पूर्ण सुख प्राप्ति हेतु तो जीव को धर्म की ओर ही
उन्मुख होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शनिवार, 23 मई 2015
सुख-दुःख में शरणभूत धर्म ही है
सुख और दुःख में एकमात्र धर्म ही शरणभूत है। इसलिए धर्म ही सर्वस्व है, धर्म
ही भाई है, धर्म ही पिता है,
धर्म ही माता है। भाई, पिता और माता आदि की गरज पूरी
करने वाला धर्म ही है। अरे,
संसार के भाई, माता, पिता
आदि जो हमारी चिन्ता करते हैं, वह धर्म का ही प्रताप है। धर्म न रहे तो
पिता, माता, भाई आदि में से कोई भी खबर लेने वाला नहीं रहेगा। धर्म पुण्य के रूप में उदित
होगा तो ही सम्बंधी,
सम्बंधी रहेंगे और मित्र मित्र रहेंगे। लडका अंतिम समय तक
आपको पिता कहेगा,
चिन्ता करेगा, यह धर्म का ही प्रताप है। ऐसे
धर्म को दुनिया की सामग्री के लिए या सगे-सम्बंधियों के लिए छोडना क्या उचित है? दुनिया
की कोई सामग्री या कोई सगा-सम्बंधी जिस समय काम में नहीं आता, उस
समय धर्म काम में आता है। यह साता भी दे सकता है और असाता के समय हृदय को यह समाधि
में भी रख सकता है। अतः अवलंबन तो केवल मात्र धर्म का ही चाहिए। धर्म की रुचि
प्रकट हो और विवेक बढे तो समझ में आता है कि अपना धर्म ही हमें सब संग से छुडाकर
असंगत्व का अनुपम सुख दिलाता है! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
शुक्रवार, 22 मई 2015
धर्म जितना किया जाए कम ही है
सचमुच यदि धर्म को पाना हो और धर्म करना हो तो सबसे पहले संसार के सुख के
प्रति वक्रदृष्टि करनी होगी। संसार के सुख से जब तक दृष्टि हटती नहीं, तब
तक धर्म, धर्म के रूप में रुचिकर नहीं लगता और जब तक धर्म, धर्मरूप
में रुचिकर नहीं लगता,
तब तक धर्म, धर्म के रूप में करने का दिल
नहीं होता। आज धर्मक्रिया करने वालों में अधिकांश धर्म के विषय में संतोषी हैं या
धन के विषय में असंतोषी हैं। थोडा और वह भी पंगु धर्म करते हैं और ऐसा मानते हैं
कि उन्होंने बहुत धर्म कर लिया! किन्तु पैसा जैसे-जैसे बढता जाता है, वैसे-वैसे
असंतोष बढता जाता है। लखपति व्यक्ति धर्म के विषय में संतोष कर लेता है, लेकिन
धन के विषय में संतोष नहीं करता। धन के लोभी को धन के विषय में जैसा अनुभव होता है, वैसा
अनुभव धर्मरुचि वाले को धर्म के विषय में होता है। वह चाहे जितना धर्म करे तो भी
उसे कम ही लगता है। उसे यही विचार आता है कि ‘अभी तो मैं कुछ भी नहीं कर
रहा हूं। धर्म तो वास्तव में साधु महाराज ही कर पाते हैं।’ इसलिए
उसे साधु बनने का मन हुआ करता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
गुरुवार, 21 मई 2015
अवगणना के पाप से बचो
जैनकुल में जन्म लेकर जो भगवान श्री जिनेश्वर देवादि की अवगणना करते हैं, उन्हें
आप पुण्यशाली कहते हैं या पापी? जैन कुल में जन्मे हुए भी कतिपय लोग ऐसा
कहते हैं कि ‘जिनेश्वर को किसने देखा है? मोक्ष है कहां? साधुओं
में क्या धरा है?
उपवास में धर्म किसने बताया? उपवास करने से शरीर के
अंदर के कीडे मरें,
उसका पाप किसको? शरीर तो सार-संभाल के लिए है।’ ऐसों
के लिए आप क्या कहेंगे?
‘उनको जो यह मिला, उसकी अपेक्षा न मिला होता तो
अच्छा होता, क्योंकि ये बिचारे यह मिला है, इसीलिए इसकी अवगणना का घोर
पाप कर रहे हैं।’
पुण्य से मिला है, इस बात से इनकार नहीं किया जा
सकता, परन्तु अकर्मी के हाथ में पेढी आ जाने जैसी बात है। ऐसा होता है न? जो
लडके कमाते तो नहीं,
परन्तु बाप की पूंजी को सुरक्षित भी नहीं रख सकते, उन्हें
जगत् में क्या कहा जाता है?
वैसे ही आप भी इस सामग्री का सदुपयोग न कर सको, इस
सामग्री की कीमत को न समझ सको और यहां से फिर संसार में भटकने के लिए चल पडो तो
क्या कहा जाए?
व्यवहार की अच्छी सामग्री मिली हो, परन्तु
जो उसका सदुपयोग करता है,
उसी को वह तारती है। ओघा हाथ में हो, परन्तु
निर्लज्ज व्यवहार करे तो वह डूबता है न? आपको जैन कुल मिला, उसमें
सम्यक्त्व को पाने के साधन सीधे मिल गए। ऐसे कुल में आकर भी यदि आप मिथ्यात्व और
अनंतानुबंधी कषायों को नहीं छोड सकते हैं तो आपका क्या होगा? जो
मिला है उसकी कीमत को समझो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
बुधवार, 20 मई 2015
अपने जीवन-व्यवहार पर चिंतन तो करें
हम अच्छे कुल में पैदा हुए हैं और सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं, लेकिन
हमारा जीवन कैसा है?
हमारा आचरण कैसा है? हमारा व्यवहार कैसा है? कभी
हमने अपने अंतरंग में झांक कर देखा है? आज हमारे कुल और
कुल-मर्यादाओं का किस प्रकार अधःपतन हो रहा है? यदि हम अंतरंग में झांकेंगे
तो हमें दिखाई देगा कि हम कुल के गौरव और मर्यादाओं को छोडकर अधिकांशतः
दुष्प्रवृत्तियों में बहे जा रहे हैं। हमारी आत्मा मलिन बनी हुई है। कषायों में हम
लिप्त हैं। कोई आदमी रुग्ण है, लेकिन जब तक उसे स्वयं बोध न हो कि मैं
रुग्ण हूं, वह बीमारी से मुक्ति पाने का प्रयास कैसे कर सकेगा? यही
हालत आज हमारी है। हमारे जीवन की स्थिति विपरीत बनी हुई है। आत्मा में रोग हो रहा
है। इस रोग से मुक्त होने की तत्परता, उल्लास हम में दिखाई नहीं
देता। रोग-मुक्ति के भाव ही पैदा नहीं हो रहे हैं। यदि हो भी रहे हों तो भी हमारे
उपाय विपरीत,
उलटे ही हो रहे हैं और बीमारी ठीक होने की अपेक्षा बढ रही
है। यह गंभीर चिन्तन और सावधान होने का विषय है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
मंगलवार, 19 मई 2015
ठगी, ईर्ष्या और द्वेष का परिणाम है यह
प्रगतिशीलता
के नाम पर, सुधारवाद के नाम पर तथाकथित
बुद्धिजीवियों ने जिनकी धर्म के संबंध में कोई समझ नहीं, जिनके स्वयं के जीवन और आचरण खोखले
हैं, ऐसे लोगों ने 2008 के आसपास किसी बालदीक्षा को
लेकर मुम्बई समाज में बवण्डर मचाया और कुछ सिरफिरों ने बिना धर्म को समझे बालदीक्षा
के खिलाफ कोर्ट में एक मुकदमा दर्ज करा दिया। कोर्ट में बालदीक्षिता साध्वी की गवाही
संभव नहीं हो पा रही थी तो कोर्ट ने एक कमीशन नियुक्त किया और यह कमीशन स्वयं जाकर
उन साध्वीजी से मिला। उनके दर्शन, वार्तालाप, सवाल-जवाब से वह कमीशन संतुष्ट हो गया और उसने अपनी रिपोर्ट
न्यायालय को सौंप दी। मामला ठंडे बस्ते में चला गया।
इस दौरान
एक नटवरलाल टाइप व्यक्ति कुशल मेहता समाज के अग्रणीय व्यक्तियों और आचार्यश्री से मिला।
उसने अपने संबंध केन्द्र सरकार के मंत्रियों
व बडे अधिकारियों से बताए। उसने कहा कि वह तो भारत सरकार से ही आदेश निकलवा देगा कि
बालदीक्षा दी जा सकती है। और उसने ऐसा ही किया। एक गजट तैयार कर लाया और लोगों से वाहवाही
लूट ली। समुदाय समझा कि वाकई यह तो लेकर आ गया है और महाराष्ट्र, गुजरात व राजस्थान
के कई अखबारों ने भी इस संबंध में समाचार प्रकाशित कर दिए। इससे विशाल स्तर पर
वातावरण का निर्माण हुआ और इसी उत्साह में सन्मार्ग प्रकाशन ने भी उस गजट की नक़ल
छापते हुए विशेषांक निकाल दिया.
यह विरोधियों
की स्वयं की साजिश थी या केवल उस व्यक्ति की ही समाज को ठगने की करतूत थी, यह तो केवलीगम्य है, लेकिन इसका पता जैसे ही कुछ लोगों
को लगा कि यह गजट फर्जी है तो उन्होंने इसकी पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी। पुलिस ने
जांच शुरू की, इस जांच में तीन साल लगे और
कुशल मेहता के ठिकानों पर दबिश देकर फर्जी सरकारी दस्तावेज तैयार करने के सामान बरामद
कर लिए और उसी को अपराधी मानकर कोर्ट में चालान पेश कर दिया, जिसमें कुशल मेहता को गिरफ्तार कर
लिया गया।
अब विरोधियों
ने दबाव बनाया कि सन्मार्ग के सम्पादक को भी गिरफ्तार करो, जबकि उससे पहले तो लोकसत्ता आदि
कई मराठी, गुजराती, अंग्रेजी के अखबारों में कुशल मेहता
गजट प्रकाशन के समाचार स्वयं छपवा चुका था। तो सवाल उठता है कि केवल सन्मार्ग के सम्पादक
को ही क्यों? सभी अखबारवालों को क्यों नहीं? लेकिन इतने बडे मीडिया पर अंगुली
उठा सके, उतनी औकात विरोधियों की नहीं
है, इसलिए उन्होंने तो अपने टार्गेट
पर ही फोकस किया; परन्तु
इस ओर कोर्ट का ध्यान आकृष्ट किया जाना चाहिए था, जो नहीं किया गया। जबकि फर्जी गजट
होने का मामला स्पष्ट होने पर सन्मार्ग ने खण्डन भी प्रकाशित कर दिया और सम्पादक ने
पुलिस में भी अपना लिखित खेद प्रकट कर दिया था।
जहां तक
आचार्यश्री या अन्य किसी का सवाल है, किसी के प्रवचन या लेख आदि का सवाल है, उन्होंने गजट के फर्जी पाए जाने
के बाद उस गजट या गजट लानेवाले व्यक्ति का समर्थन नहीं किया है। जब तक मीडिया और पूरा
समाज इस बात से अनभिज्ञ था, तब तक सभी ने इस बात की सराहना की, क्योंकि यदि वह सही है तो जैनशासन
के लिए एक बहुत बडी उपलब्धि है; इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि ये सभी लोग उस फर्जीवाडे में शामिल
हो गए। आचार्यश्री या सन्मार्ग कार्यालय अथवा समाज के किसी ट्रस्टी के पास से या उनके
ठिकानों से ऐसे कोई दस्तावेज या सील आदि बरामद नहीं हुए। यह सब बरामदगी एक ही व्यक्ति
कुशल मेहता के ठिकाने से हुई है और जांच में पाया गया है कि वह आदतन जालसाज है। ऐसे
में किसी धर्माचार्य या किसी धार्मिक संस्था या उसके ट्रस्टियों को इस मामले में घसीटना
निहायत ही दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद है, यह कतिपय लोगों के ईर्ष्या व द्वेष का परिणाम है, जो आज गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले
के रूप में हमारे सामने है।
8-10 लोगों के एक ही समूह द्वारा
एक ही बात को लेकर दस अलग-अलग स्थानों पर मुकदमे करना; यह ईर्ष्या और द्वेष नहीं है तो
और क्या है?
इसी ईर्ष्या
और द्वेष ने आज पूरे जैन समाज को संकट में खडा कर दिया है, जैनधर्म, दीक्षाधर्म की कितनी हीलना हो रही
है?
कोई भी जैनाचार्य जो पांच महाव्रतों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह का तीन करण, तीन योग से पालन करता हो और फखत अपनी
आत्मा में ही रमण करता हो, जीव मात्र के कल्याण की बात करता
हो; क्या वह स्वयं कोई फर्जी सरकारी दस्तावेज बना सकता है?
बनाने की प्रेरणा दे सकता है? या उसे मालूम हो
जाए कि अमुक चीज फर्जी है तो उसकी अनुमोदना कर सकता है? ये
यक्ष प्रश्न हैं।
ऐसा कोई भी जैनाचार्य नहीं कर सकता, नहीं करवा सकता और न ही करनेवाले की अनुमोदना कर सकता है।
इसके पीछे भयंकर ईर्ष्या और षडयंत्र है, जिसे समाज को, न्यायपालिका को और सरकार को समझना चाहिए। कोई इस प्रकार
लाखों लोगों की आस्था और विश्वास के साथ खिलवाड नहीं कर सकता।
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