बाह्य पदार्थों में सुख खोजते हुए हम अपने भीतर के सच्चिदानंद को उपेक्षित कर
रहे हैं, यह बहुत चिन्तनीय विषय है। मिथ्यात्व के आवरण छेद कर जब सम्यक्त्व का दिव्य
प्रकाश प्रस्फुटित होता है,
तब अपने आप में रहे हुए अक्षय कोष का ज्ञान होता है। उस समय
चेतना में कई प्रकार के रूपांतरण होते हैं। सबसे बडी बात तो यही होती है कि
सम्यक्त्व का जागरण होते ही जीव अपनी शक्ति को पहचान जाता है, फिर
वह अपने ऊपर किसी बाहरी नियंता या कर्त्ता-हर्ता की शक्ति को नहीं मानता। फिर वह
स्वयं को किसी अदृश्य ईश्वरीय शक्ति की कठपुतली मात्र नहीं समझता, अपितु
स्वयंकृत कर्मों के क्षय द्वारा अपने आप में ही ईश्वरत्व को साक्षात् अनुभव कर
लेता है, ऐसी विलक्षण शक्ति का अखूट कोष हमारे पास ही है। जरूरत है उसे अनावृत करने की।
सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ही सही ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान है। आत्म
साधना की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि को हेय, ज्ञेय, उपादेय
का बोध नहीं होता। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान नशे में झूमते हुए नशेडी के ज्ञान के
तुल्य माना गया है। मिथ्यादृष्टि आसक्त होता है और सम्यग्दृष्टि अनासक्त।
सम्यग्दृष्टि भाव का जागरण होते ही मन में अपूर्व शान्ति का अहसास होता है।
सम्यग्दृष्टि के जागरण के साथ ही हमें अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान भी हो जाती
है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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