धर्मीति
ख्यातिलोभेन,
प्रच्छादितनिजाश्रवः।
तृणाय
मन्यते विश्वं,
हीनोऽपि धृतकैतवः।।1।।
आत्मोत्कर्षात्ततो
दम्भी, परेषां चापवादतः।
बध्नाति
कठिनं कर्म्म,
बाधकं योगजन्मनः।।2।।
'कपट को धारण करने वाली आत्मा धर्मीपन की ख्याति के रूप से स्वयं के आस्रव को
छुपाकर,
स्वयं हीन होते हुए भी जगत को तृण के समान मानते हैं।'
'उस कारण से दम्भी आत्मा स्वयं का उत्कर्ष करके और दूसरों के अपवाद बोलकर, योगजन्म
के बाधक बनने वाले कठिन कर्म को बांधते हैं।'
इस विश्व में मायावी और प्रपंची आत्माओं का पंथ ही अलग होता है और इसी कारण से
ऐसी आत्माएं स्वयं के पंजे-परिचय में आने वाली आत्माओं का जितना अहित न करे, उतना
ही कम है तथा विश्व के उपकारियों को नीचा दिखाने की बेशर्मी की, जितनी
कार्यवाही न करे,
उतना कम है ! ऐसी आत्माओं के द्वारा कोई भी अच्छा कार्य करवाने
की आशा रखना,
उसके जैसी भयंकर मूर्खता दूसरी एक भी नहीं है। इसलिए कल्याण
के अर्थी सभी आत्माओं का तो यह कर्त्तव्य है कि "ऐसे शासन
के सत्य की और इस सत्य का प्रचार करने वाली आत्माओं को गलत रीति से नीचा दिखाने की
कोशिश करने वाली,
कराने वाली और करने वाले को इरादापूर्वक सहयोग देने वाले पापात्माओं
से स्वयं की जात को बचानी चाहिए, ऐसे पापात्माओं के सहवास से बचने में ही कल्याण
है।"-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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