जीवन के भोग, मेघ रूपी वितान में चमकती हुई बिजली के
समान चंचल हैं और आयु, अग्नि में तपाये हुए लोहे पर पडी
जल-बिन्दु के समान क्षणिक है। जिस प्रकार सर्प के मुँह में पडा हुआ भी मेंढक
मच्छरों को ताकता रहता है; उसी प्रकार लोग काल रूपी सर्प से ग्रस्त
हुए भी अनित्य भोगों को चाहते रहते हैं। हमने विषयों को तो भोगा नहीं, उलटे
विषयों ने ही हमें भोग लिया, हम तप न तपे, परन्तु
ताप ने हमें तपा दिया और समय नहीं बीता, परन्तु आयु अलबत्ता व्यतीत हो
गई। परन्तु इतने पर भी तृष्णा बूढी नहीं हुई, बल्कि हम ही वृद्ध हो गए।
इतना सब हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं और संसार की असारता को भी जान रहे हैं, फिर
भी हमारे कदम धर्माचरण की ओर न बढें तो यह दुर्भाग्य ही है। पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री
और बंधु-बांधवों का संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह से इकट्ठी
हुई लकड़ियों के समान चंचल है। यह निःसंदेह दिखाई पडता है कि लक्ष्मी छाया के समान
चंचल और यौवन जल-तरंग के समान अनित्य है, स्त्री-सुख स्वप्न के समान
मिथ्या और आयु अत्यंत अल्प है, तिस पर भी प्राणियों का इनमें कितना
प्रमाद-भाव, कितना अभिमान है?
जीवन की इस सच्चाई को, इस वास्तविकता को अनदेखा न
करें और इसी समय से अपने आत्म-कल्याण के उपायों में लग जाएं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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