आज 30 वर्ष पूरे हो गए। ठीक 30 वर्ष पूर्व आज ही के दिन
25.04.1987 को रात्रि 12.40 बजे राजस्थान
के माने हुए डकैतों व शातिर अपराधियों से मेरी हत्या करवाने के लिए हमला करवाया गया
था। वे मार नहीं सके, लेकिन इस हमले में मेरे
शरीर का एक अंग कट गया, जिसे
वे निशानी के रूप में संबंधित वेशधारी (तथाकथित तांत्रिक-मांत्रिक श्वेत वस्त्रधारी
श्रमण संघीय प्रवर्तक स्थानकवासी साधु) को भेंट चढाने के लिए ले गए कि हमने आपका काम
कर दिया। पुलिस जांच एवं रिकॉर्ड के अनुसार इस तथाकथित साधु ने अपने अंधभक्तों से तब
मुझे मारने के लिए 12 लाख रुपये
दिलवाए थे। इनसे मेरा कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं था और न ही मैंने अपने जीवन में किसी
के विरूद्ध कभी भी व्यक्तिगत द्वेष रखा है और न ही उसके कारण किसी के खिलाफ कभी कुछ
लिखा है।
इस घटना का प्रतिवर्ष मैं स्मरण सिर्फ इसलिए करता हूं ताकि मुझे सतत सत्य लिखने
की प्रेरणा और ऊर्जा मिलती रहे।
दरअसल उन दिनों मैं धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्ड, शिथिलाचार और व्यभिचार के खिलाफ लिखकर तथाकथित अहिंसक समाज को सावधान कर रहा था, ताकि भोले, भावुक
और धर्म-प्राण लोग वेशधारी ठगों के मायाजाल से बच सकें। मेरी कलम को रोकने के लिए मुझे
तब लाखों रुपये देने की पेशकश की गई और मेरे पूरे परिवार पर सामाजिक दबाव बनाने का
प्रयत्न किया, जिसे मैंने स्पष्ट रूप से नकार
दिया और इस प्रकार की पहल का बहुत ही कठोर शब्दों में जवाब दिया और अपना लेखन जारी
रखा। तब इन पाखण्डियों ने मुझे मारने के लिए पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक सेना के एक भगोडे, जिसने एक तहसीलदार के हाथ-पैर काट दिए और भीलवाडा के एक बैंक
में डकैती के आरोप में साढे चार साल की सजा काटी ही थी, उसे हायर किया। केंकडी के इस डकैत गजराजसिंह ने अजमेर के शातिर क्रिमिनल दिलीप
चौधरी और पाली के अजीत सिंह की एक गैंग बनाई और उदयपुर में एक टेक्सी किराये पर लेकर
मकान का रास्ता बताने के नाम पर उदयपुर में तीन अन्य लोगों को अपने साथ लिया। रात 12.40 पर मेरे निवास पर मुझ पर हमला किया गया। खैर...इस घटना के विस्तार
में नहीं जाना चाहता, बस खून में बुरी तरह लथपथ
होने के बावजूद घायल अवस्था में मैंने दौडकर इन लोगों का पीछा कर गाडी के नम्बर नोट
किए, पडौसी सभी इकट्ठा हो गए। पुलिस
को भी तत्काल जानकारी दे दी गई और वह भी हरकत में आ गई। तत्कालीन डीआईजी, पुलिस अधीक्षक और थानाधिकारी इस घटना से स्तब्ध थे और दिन-रात
एक कर अपराधियों की धडपकड की। घटना की गहराई तक छानबीन की जो अपने आप में एक दस्तावेज
है। हालांकि कोर्ट ने 18 वर्ष
बाद मामले में टेक्सी ड्राइवर और मकान बताने आए लोगों को सजा सुनाई, लेकिन तीनों मुख्य अपराधी तो दो वर्ष के भीतर ही अपने कर्म उदय
में आ जाने के कारण इस दुनिया से उठ गए। गजराजसिंह को किसी अन्य झगडे में उसके समानांतर
दूसरे गुर्जर गिरोह ने गोली मार दी और पत्थर खदानों में घटना स्थल पर ही उसने दम तोड
दिया, दिलीप चौधरी का पूरा शरीर घटना
के एक माह में ही बुरी तरह सड़ना शुरू हो गया और खुजालने से उसके शरीर में पस पड गया, वह अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठा और कुंए में गिरकर मर गया।
अजीतसिंह स्वयं एक तहसीलदार का लडका था, लेकिन पिता की भ्रष्ट कमाई के कारण गलत रास्ते पर था, विवाह से पूर्व रात्रि को उसकी गर्दन काटकर कोई ले गया। खैर...। जिस तथाकथित तांत्रिक-मांत्रिक
वेशधारी साधु ने इन्हें भेजा, उसे दिल
का दौरा पडा, बाइपास सर्जरी हुई, इसके बाद गिरने से कुल्हा टूट गया, उसका ट्रांसप्लांट हुआ, फिर घुटने
भी बदलवाए, लिवर का भी ट्रांसप्लांट हुआ और
दोनों किडनियां भी खराब हो गई है, इसलिए
वह सतत डॉयलिसिस पर रहने को मजबूर है, क्योंकि आयुष्य शेष है। खैर....!
"घटना में मेरे बच जाने का, मेरे जीवित होने का अर्थ ही यह है कि मैं सत्य को कहूं, कहता रहूँ, परिणाम
चाहे जो हों, धर्म के प्रति मुझे अपना फर्ज निभाते रहना है। मुझे मौत का कोई भय नहीं
है।"
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