गुरुवार, 20 सितंबर 2012

आप असद् के आग्रही तो नहीं ?


जितने जैन कहलाते हैं, वे सब समकिती ही हैं, वास्तविक रूप में जैन ही हैं, उनका आचार-विचार जैनत्व के अनुरूप ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जैन कुल में जन्में हुओं के लिए मिथ्यात्व निकालना और सम्यक्त्व प्रकट करना बहुत सुलभ है, ऐसा अवश्य कहा जा सकता है। परन्तु, वह भी यदि असद् आग्रह में पड जाए अथवा तत्त्वातत्त्व को जानने का प्रयास न करे, तो सम्यक्त्व कहां से प्राप्त करे? जैसे व्यवहार में जितने वणिक उतने शाह कहे जाते हैं, परन्तु जितने शाह कहे जाते हैं, वे सब साहूकारी निभाते हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता। कोई व्यक्ति शाहलिखा हुआ पढकर पांच हजार रुपये अमानत रख जाए तो वह अमानत की रकम ही गंवा बैठे, यह भी संभव है न? जितनों को सेठलिखा जाता है, वे सब श्रेष्ठ ही हैं, ऐसा नहीं है न? कोई सेठ आपके घर आ जाए तो आप क्या करेंगे? आदर-सत्कार करेंगे, बैठाएंगे, जीमाएंगे, परन्तु यदि वह पांच हजार रुपये मांगे तो आप क्या करेंगे? नाम-ठाम आदि पूछ कर और दी गई रकम डूबे नहीं, ऐसी तसल्ली (खातरी) करने के पश्चात् ही देने हों तो देंगे न? वैसे ही व्यवहार से श्रावक-श्राविका चौथे-पांचवें गुणस्थान में और साधु-साध्वी छठे-सातवें गुणस्थान में गिने जाते हैं, परन्तु हृदय में उस-उस गुणस्थानक के परिणाम न हों और मिथ्यात्व उदय में हो तो चौथे-पांचवें और छठे-सातवें गुणस्थानक में गिनाने से क्या लाभ?

व्यवहार से आप समकिती माने जाते हैं, यह बात दूसरी है, परन्तु आपको अपने अंतःकरण से पूछना होगा कि, आप में सम्यक्त्व प्रकट हुआ या नहीं? हम इस बात को समझकर सावधान बन जाएं तो नरक के कारणों पर अंकुश लगा सकते हैं। विवेकी को नरक में ले जाने में कोई समर्थ नहीं है। विवेकी बनना हो तो ज्ञानी की निश्रा स्वीकार करनी होगी और अज्ञान को हटाने का प्रयत्न करना होगा। अज्ञान का अंधकार हटाने के लिए असद् का आग्रह छोडना पडेगा। सच्चा जैनी असद् का आग्रही नहीं होता। आग्रह रहित होकर वह सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनता है। जिसे यह बात समझ में आती है, उसे साधुओं की विशेष आवश्यकता प्रतीत होती है।

आज आपको साधुओं की आवश्यकता कितनी है? गोचरी-पानी बहराने जितनी! पर्व-तिथि मनाने जितनी? व्याख्यानादि सुनाने जितनी? साधुओं के पास कैसा माल है? जगत् में अन्य किसी के पास न हो, ऐसा माल साधु के पास होता है न? क्योंकि, साधु अर्थात् भगवान् द्वारा प्ररूपित आगम को ही सर्वस्व मानने वाले! आपकी दृष्टि में ऐसे माल की कितनी कीमत है? आभिग्रहिक की अपेक्षा अनाभिग्रहिक अच्छा, क्योंकि वह किसी समय ठिकाने पड जाता है। ऐसे को ज्ञानी साधुओं का योग शीघ्र फलदायक होता है, क्योंकि उसे असद् आग्रह नहीं होता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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