रविवार, 30 सितंबर 2012

संतति के परलोक की चिंता होती है?


संतति के परलोक की चिंता होती है?

क्या अपने घर में जन्मे लडकों को आप दुर्गति में भेजना चाहेंगे? उसके परलोक की आपको चिंता होती है या नहीं? जिसे परलोक की चिंता नहीं, वह नास्तिक है। सामान्य आस्तिक भी वह कहा जाता है, जिसे परलोक का विचार हो। केवल परलोक का विचार आता हो तो भी मानस बदल सकता है। धीरे-धीरे ऐसा भी हो सकता है कि बाप जितना अच्छा न लगे, उतने गुरु अच्छे लगने लगें।अपने लडके तत्त्वज्ञान को जाने बिना संसार चलाते हैं, यह अच्छा नहीं है; ऐसा आपको विचार आता है? ‘लडके संसार को छोड दें तो अच्छा, परन्तु संसार में रहें तो भी धर्म को न भूलें’, इतना भी उनका हित आपके हृदय में बसा है या नहीं?

संसार पर्याय को काटने और मोक्षपर्याय को प्रकट करने का प्रयत्न करना है, ऐसा निर्णय यदि आपने कर लिया हो तो आप आपके कुटुम्बियों के कल्याण के लिए भी यथाशक्ति प्रयत्न किए बिना नहीं रह सकते। अब तक कषायों और इन्द्रियों के विजेता बनकर अनंत आत्माओं ने अपने मोक्षपर्याय को प्रकट किया है। वे सब स्वरूप-रमणतारूप सुख में निमग्न हैं। यह सुख परिपूर्ण भी है और अनंतकाल में भी कभी जाने वाला नहीं है। दुःख का नाम नहीं और सुख का पार नहीं, और यह सुख भी ऐसा कि कभी जाए नहीं।

संसार पर्याय का अनुभव करने वालों को चाहे जितना सुख हो तो भी दुःख का सर्वथा अभाव नहीं होता। संसार पर्याय का अनुभव करने वालों में सुखी बहुत थोडे हैं और दुःखी बहुत अधिक हैं। संसार का सुख भी ऐसा है कि या तो यह चला जाता है या अपने को जाना पडता है। हम तो अभी संसार-पर्याय का अनुभव करते हैं, परन्तु हमें यह पर्याय खटकता है और मोक्षपर्याय पाने की इच्छा मन में जागती है, ऐसा तो हम कह सकते हैं न?

हमारा अस्तित्व तो अनादिकाल से है, परन्तु हमारा बहुत सारा काल निगोद अवस्था में चला गया। उसमें से हम हमारी भवितव्यता के कारण व्यवहार राशि में आए। व्यवहार राशि में आने पर भी हम अभी चार गतियों में भटक रहे हैं, क्योंकि अभी हम कषायों और इन्द्रियों के विजेता नहीं बन पाए और इसके कारण हमारे मोक्षपर्याय को हम प्रकट नहीं कर पाए।यह बात जिसके हृदय में बराबर बैठ जाती है, उसे कषायों और इन्द्रियों पर विजय पाने की इच्छा होती है न? कषायों और इन्द्रियों से जो छूटे, वही संसार से छूटे। इसलिए हम भी कषायों और इन्द्रियों से छूट सकते हैं। इसके बिना दुःख का सर्वथा अभाव नहीं हो सकता और सुख का सम्पूर्ण भोग भी नहीं हो सकता। ऐसा समझने वाले को अपने स्नेही सम्बन्धियों के लिए भी ऐसा विचार तो आता है न कि यह बात उन्हें भी समझ में आ जाए तो अच्छा। यह बात यदि वे न समझे तो वे संसार में भटकते रहेंगे?’ -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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