अज्ञान बहुत बुरा है, परन्तु जब अज्ञान के साथ आग्रह मिल जाता है तो वह बहुत
दुर्दशा कर डालता है। ‘ऐसी स्थिति में करेला और नीम
चढा’, वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। वहां घोर मिथ्यात्व
की कडुवाहट ही होती है, सम्यक्त्व का माधुर्य वहां
नहीं हो सकता। अज्ञान और आग्रह इन दो पर मिथ्यात्व जीवित रहता है, फलता है, फूलता है।
बहुत अज्ञान हो अथवा बहुत
दुराग्रह हो तो मिथ्यात्व अच्छी तरह जीवित रहता है। अज्ञान के साथ आग्रह मिल जाए
तो दुर्दशा तय है। इसलिए जिसे मिथ्यात्व की कडुवाहट नहीं चाहिए, जो दुर्गति में नहीं जाना चाहता और जिसे सम्यक्त्व का माधुर्य
व अक्षय सुख, अक्षय आनंद स्वरूप मोक्ष चाहिए, उसे इन दोनों से बचना चाहिए। आभिग्रहिक मिथ्यात्व के स्वरूप
को स्पष्ट करते हुए परम उपकारी वाचकशेखर श्रीमद् यशोविजयजी महाराज फरमाते हैं कि-
‘तत्त्वों के स्वरूप के विषय में जिसे वास्तविक ज्ञान न हो, ऐसे अज्ञानी जीव का स्व-अभ्युपगत अर्थ का ऐसा श्रद्धान कि
जिससे उस स्वीकृत अर्थ से विपरीत बात को वह समझ ही न सके या सुनना-समझना ही न चाहे, उसे आभिग्रहिक मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं।’
जो तत्त्व को नहीं जानता और
स्वयं द्वारा स्वीकृत वस्तु के प्रति जिसमें ऐसी दृढ श्रद्धा हो या ऐसा दृढ आग्रह
हो कि उसकी मान्यता मिथ्या होने पर भी,
यह मान्यता मिथ्या है, ऐसा मानने-समझने का जिसे अवकाश ही नहीं, ऐसा जो मिथ्यात्व है,
वह आभिग्रहिक
मिथ्यात्व कहा जाता है।
कुदर्शन के आग्रहियों और
वितंडावादियों में भी यह मिथ्यात्व होता है। ‘वे स्वयं जो कुछ मानते हैं, वही सत्य है,
ऐसा मानकर वे चलते हैं
और उनकी मान्यता से भिन्न बात आए तो इतनी शंका भी उन्हें नहीं होती कि कदाचित्
मेरा माना हुआ मिथ्या और इनका माना हुआ सत्य तो नहीं है? इतनी भी शंका पैदा हो तो जिज्ञासा प्रकट हो सकती है।
शंका हो तो अपनी मान्यता का आग्रह
ढीला पडता है और दूसरे के विचारों को सुनने का मन होता है। वह तो ऐसा आग्रही होता
है कि कदाचित् सामने वाले की बात को सुने और विचारे तो भी इस दृष्टि से कि उसकी
बात को किस युक्ति से झूठी सिद्ध की जा सकती है। सामने वाले की बात समझनी है, ऐसी श्रद्धा उसमें नहीं होती। परन्तु, येन-केन-प्रकारेण उसकी बात को खण्डित करना है, ऐसी भावना उसमें होती है। जहां तक मिथ्यात्व इतना जोरदार हो, वहां तक चाहे जैसा सुन्दर योग मिले तो भी जीव मिथ्यात्व को
हटाकर सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता। जो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता, उसका जैन कुल और मानव जीवन व्यर्थ है।-आचार्य श्री विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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