रविवार, 28 अक्तूबर 2012

जैन दर्शन गुण-प्रधान है, व्यक्ति केंद्रित नहीं


जैन दर्शन गुण-प्रधान है, व्यक्ति केंद्रित नहीं

कामराग, स्नेहराग और दृष्टिराग के कारण मूढता और व्युद्ग्राहिता शीघ्र पैदा हो सकती है। जैसे कामराग और स्नेहराग विद्यमान हों, परन्तु यदि वे जोरदार न हों तो वे न तो गुणानुराग को ही रोक सकते हैं और न सम्यक्त्व की प्राप्ति को ही रोक सकते हैं; वैसे दृष्टिराग भी सामान्य कोटि का हो, कुटुम्बादि के कारण मिथ्यादर्शन मिल गया हो और वह रुच गया हो, परन्तु यदि मेरा मिथ्या दर्शन ही अच्छा और सब खराब ही हैं’, ऐसा भाव पैदा करने वाला वह राग न हो तो, ऐसे राग की मौजूदगी में सामान्य गुणानुराग प्रकट न हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

यद्यपि दृष्टिराग सामान्य कोटि का भी जहां तक होता है, वहां तक सम्यग्दर्शन गुण तो प्रकट हो ही नहीं सकता। अतः सद्धर्म पाने के अभिलाषियों को तो इसकी छाया में भी नहीं जाना चाहिए। दृष्टिराग जब थोडा जोरदार बनता है, तब किसी भी तत्त्व की बात आए या देव-गुरु-धर्म के स्वरूप संबंधी बात आए, वहां यह अंतराय किए बिना नहीं रहता।

दृष्टिराग का यह स्वभाव है कि वह सद्-असद् का विवेक नहीं करने देता। वहां मेरा सो सच्चा’, यह भाव होता है। परन्तु सच्चा सो मेरायह भाव नहीं होता। तत्त्व की बात जब तक समझ में न आए, तब तक मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। कुदर्शन का राग, दृष्टिराग है और श्री जिनदर्शन का राग दृष्टिराग नहीं है। क्योंकि, इतर दर्शन में अशुद्धता अधिक है। तथा वहां अमुक ही देव, अमुक ही गुरु और अमुक ही धर्म’, ऐसा ही माना जाता है। श्री जैनदर्शन में ऐसा नहीं है। श्री जैनदर्शन सब तरह से शुद्ध है और देव-गुरु-धर्म के वास्तविक स्वरूप का दर्शन करा कर श्री जैन दर्शन कहता है कि ऐसे स्वरूप वाला जो कोई भी हो, वह देव कहलाता है, इस प्रकार के स्वरूप वाला कोई भी हो, वह गुरु कहलाता है और ऐसे स्वरूप वाला कोई भी हो, वह धर्म कहलाता है।

श्री जैन दर्शन गुण-प्रधान है, व्यक्ति केंद्रित नहीं है। यहां देव-गुरु-धर्म की मान्यता एवं व्याख्या गुणों के आधार पर की गई है और उनके सुअथवा कुका मापदण्ड गुणों के आधार पर होता है, किसी व्यक्ति अथवा जड मान्यता के आधार पर नहीं। जो अमुक-अमुक गुणों की कसौटी पर खरा है, राग-द्वेष रहित है, केवलज्ञानी है, वही सुदेव है, जो अमुक-अमुक गुणों का धारक है (आचार्य के 36 गुण, साधु के 27 गुण आदि), वही सुगुरु है और अमुक-अमुक गुणों से युक्त अथवा स्वरूप वाला (जिनाज्ञा, अरिहंत देवों द्वारा प्ररूपित मार्ग का दिग्दर्शन कराने वाला) ही सच्चा एवं सुधर्म है। हमारा देव-गुरु-धर्म के प्रति अनुराग गुण-राग है, दृष्टि-राग नहीं। यह गुणराग तो मुक्ति की ओर ले जाने वाला है। हम हमारे देव-गुरु-धर्म ही सच्चे’, ऐसा कहते अवश्य हैं, परन्तु वह गुणों और उनके वास्तविक स्वरूप के आधार से ही कहते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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