गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

कषाय पतले पड़े हैं?


सामान्य रूप से आपके लिए ऐसा माना जाता है कि आप में लोभ, आसक्ति, ममता आदि हों, यह संभव है, परन्तु इसमें आप प्रसन्न न हों; अर्थात् आपको इसके लिए खटक तो होनी ही चाहिए। आप दान नहीं देते, ऐसा नहीं; शील नहीं पालते, ऐसा नहीं, तप नहीं करते, ऐसा नहीं; यहां आप कितनी सारी धर्म-क्रियाएं करते हैं? आपके धर्म को देखकर सहज ऐसा विचार होता है कि जो इतना अधिक धर्म करते हैं, उनमें अति लोभ, अति आसक्ति, अति ममता आदि नहीं हो सकते!

अर्थात् आप जो ऐसा कहते हैं कि- निरूपाय (लाचारी वश) हमें करना पडता है, तो इतने मात्र से क्या आप असत्य कहते हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता? इन धर्मक्रियाओं को करने वाला अति लोभी आदि हो, तो इससे इन धर्मक्रियाओं की भी लघुता होती है। यदि योग्य रीति से इन धर्मक्रियाओं को किया जाए तो लोभ आदि घटने ही चाहिए, चाहे संयोगवश निवृत्ति न ली जा सके।

जैसे कतिपय आत्माओं को अधर्म में इतना समय लगाना पडता है कि वे धर्म के लिए कठिनाई से समय निकाल पाते हैं; तो भी ऐसी आत्माओं में से उत्तम हृदय की आत्माएं भी होती हैं कि जो इस प्रकार मनोमन दुःखी होती हैं कि मेरे और मेरे आश्रितों का पेट भरने के लिए, धर्म लज्जित न हो, इस तरह जीवन जीने के लिए, मुझे ऐसा करना पडता है।

ऐसी सुन्दर देव-गुरु-धर्म की सामग्री मिली है, इसलिए धर्म करने की बहुत इच्छा होती है। परन्तु, पुण्य की अपेक्षा पाप भी ऐसा किया कि ऐसी सामग्री का लाभ नहीं उठा पाता। लोभ जोरदार नहीं, आसक्ति भान भुलाने जैसी नहीं, परन्तु संयोग ऐसे हैं कि छोडे नहीं जा सकते। संयोग अच्छे हों तो धर्म के अतिरिक्त कुछ भी करने की इच्छा नहीं होती।क्या इस प्रकार का अन्तर्द्वंद्व आपके भीतर चलता है? पाप क्रियाएं करते हुए मन में दुःख और घुटन का अनुभव होता है? क्या आपको बार-बार यह बात कचोटती है कि मुझ से संसार नहीं छूट रहा, विरति नहीं ले पा रहा और घर-गृहस्थी में फंस गया हूं, इसलिए मुझे निर्वाह के लिए यह सब करना पड रहा है, अन्यथा तो करने योग्य तो सिर्फ धर्म ही है। यह चिंतन अनवरत रूप से चलना चाहिए।

विवशता के कारण निवृत्ति नहीं ले सकते।यदि आपने इस रीति से धर्म किया होता और चिंतन किया होता कि करने योग्य तो धर्म ही है। मुझे पूरे समय धर्म में ही रत रहना चाहिए, लेकिन नहीं रह पाता, यह मेरी कमजोरी, विवशता, अशक्ति है!तो इतने वर्षों में आपके कषाय बहुत पतले पड गए होते और विषय-सुख के प्रति भी आपको अरुचि पैदा हो गई होती! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें