शनिवार, 14 नवंबर 2015

साधु का आहार



साधु आहार संयमपुष्टि के लिए लेता है, किन्तु ग्रास (कौर) मुँह में डालते समय आत्मा से पूछे कि यह संयमपुष्टि के लिए लिया जा रहा है या स्वादपुष्टि के लिए?’ तो तुरंत जवाब मिलता है कि अभी संयमपुष्टि के लिए आहार की स्थिति में समय है; किन्तु शास्त्र कहते हैं इसलिए सब संयमपुष्टि के लिए ही है’, ऐसा कहकर गाडी लुढकाए तो मारा जाए। यह कोई छिपा नहीं रहता। खाने में कंकर आए तो तुरन्त पता चल जाता है न? पता चल जाता है यह तो ठीक है, किन्तु मन और मुखाकृति में तुरन्त बदलाव हो जाता है। कदाचित् कोई समझदार हो, कुशल हो तो मुखाकृति में बदलाव न भी लाए, किन्तु मन? इसके लिए तो मुनि को नाना प्रकार के अभिग्रह करने पडते हैं। यह स्थिति लाने के लिए ही अभिग्रह हैं। छठ के पारणे छठ, पारणे में भी आयम्बिल और आयम्बिल में भी जिस पर मक्खी न बैठे ऐसा आहार लेने का धन्ना अणगार का अभिग्रह था। उनके जैसे मुनि को फिर छठ का तप करने, आयम्बिल करने और ऐसा आहार लेने का अभिग्रह किसलिए? क्योंकि आहार तो संयमपुष्टि के लिए है। ये आत्माएं अपनी परीक्षा सूक्ष्मता से कर सकती थीं।

जिव्हा (जीभ) को ऐसी बनानी कि उसे रस-कस का पता ही नहीं चले, स्वाद-लोलुपता ही समाप्त हो जाए, ऐसा ये मानते थे। साधु आहार पुत्रमांसवत्करे यह विधि है। जंगल में गए हुए को न चाहते हुए भी किसी परिस्थिति अथवा मजबूरीवश पुत्र के शव का मांस खाना पडे तो वह कैसे हृदय से खाएगा? इस प्रकार मुनि आहार करे ऐसा शास्त्र कहते हैं। आज यह दृष्टि नहीं है। आज ढोंगियों का झुण्ड बढ गया है, स्वाद-लोलुपता बढ गई है, यह आज दुःख का विषय है। अपने दोषों को छिपाने के लिए इन दोषों को ही गुण के रूप में बतलाने की लालसा बढ गई है। इसलिए ऐसे लुच्चों के साथ मेल नहीं बैठता। अंतर से प्रेम नहीं होता।

यदि स्वयं विरक्त है तो निरस आहार आए वहां गुस्सा क्यों आता है? वहां ऐसा किसलिए? कहना चाहिए कि अमुक के बिना नहीं चलता। साधु प्रतिज्ञाहीन होता है अर्थात् उसे प्रतिज्ञा की जरूरत नहीं, लेकिन वह कब? जब साधना द्वारा ऐसी उच्च दशा आए तब। यदि ऐसी दशा आए बिना ही ऐसा मान ले तो तो फिर मुनिवेष पहिनने के बाद कुछ करने का रहता ही नहीं है; किन्तु ऐसा नहीं है। मुनि को अभिग्रह धारण करना ही चाहिए। साधुत्व स्वीकार करने के बाद, संयम अंगीकार करने के बाद तो जोखिमदारी बढती है। यदि इस बात को समझे तो तो मुनि आनंदमग्न रहता है, लेकिन नहीं समझते वे दुःखी हैं।-सूरिरामचन्द्र

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