रविवार, 15 नवंबर 2015

विषय-कषाय ही विद्वत्ता या मूर्खता का पैमाना



जैसे-जैसे वर्ष बीते, बडे हुए, वैसे-वैसे पांचों आस्रव बढे या घटे? विषय-कषाय बढे या घटे? इन्द्रियां काबू में आई या बहकी? यह सब प्रतिदिन आत्मा से पूछो। यदि आस्रव घटे हों, विषय-कषाय कम पडे हों और इन्द्रियां काबू में आई हों तो तो आप बडे, चतुर, समझदार, पढे-लिखे; किन्तु यदि आस्रव बढे हों, विषय-कषाय उछले हों, बढ गए हों और इन्द्रियां बहकी हों तो बेवकूफ, अनपढ, अक्लहीन और गंवार। विषय-कषाय की घटत-बढत ही विद्वत्ता और मूर्खता का आधार है।

आप उम्र के आधार पर, दुनियादारी के अनुभव के आधार पर, किताबें पढने के आधार पर विद्वत्ता का मूल्यांकन करते हो, लेकिन यहां ऐसा नहीं है। प्रभु की पूजा की, किन्तु विषय-कषाय बढे या घटे यह प्रतिदिन आत्मा से पूछो! आत्मा को पूछो कि मोह-ममता का जाल टूटा? मकडी के जाल की तरह खुद के जाल में खुद ही फंसते हैं और ऊपर से श्री जिनेश्वरदेव को पहिचानने का दावा करें तो यह चल सकता है? नहीं ही चल सकता है। आत्मा के साथ हुआ संवाद योग्य के समक्ष ही किया जाता है, जहां-तहां नहीं किया जा सकता है। इतनी आत्म-चिंता न हो, गवेषक शक्ति न आए, प्रतिदिन गवेषणा न हो तो पढने से क्या? पूजा करने से क्या? ऐसों की यहां गणना नहीं है।

बडों की पूजा स्वयं के दोषों में कमी लाने के लिए है। आज तो अपनी अनुकूलता में सारी अनुकूलता। ऐसों को यदि कहो कि ये पूज्य व्यक्ति हैं’, तो वे तुरंत कहेंगे कि हां, यह बात सही है, किन्तु इनसे मुझे क्या लाभ है? मुझे तो लाभ हो तो मैं पूजूं।ऐसी मनोदशा है।

आत्मिक लाभ तो है, किन्तु इस लाभ की परवाह कहां है? शारीरिक, मानसिक और महत्त्वाकांक्षा के सांसारिक लाभ की यह बात है। यह लाभ होता हो तो मानने को तैयार हैं। तब ये किसको मानते हैं अब यह विचार करो! जैन शासन की विनय-मर्यादा आज नष्टप्रायः होती जा रही है इसका यही कारण है। विषय-कषाय की आधीनता ही इसके मूल में है और इसी को लेकर विनय-वैयावच्चादि भी विपरीत मार्ग पर जा रहे हैं। प्रत्येक क्रिया आत्मकल्याण के लिए होनी चाहिए, यह आज विस्मृत हो गया है, भूल गए हैं। विनय, वैयावच्च, भक्ति आदि में कल्याण न होता तो शास्त्रकार यह सब करने के लिए नहीं कहते, किन्तु आजकल के लोगों ने तो नया कल्याण खोजा है। अपने साथ अनुकूलता बरते उसके साथ योग्य प्रकार से व्यवहार करना’, ऐसा स्पष्ट कहा जाता है।

अयोग्य पात्र अच्छी चीज को भी विकृत कर देते हैं। विनय, भक्ति, प्रेम भी आज अपनी अनुकूलता के हिसाब से होता है, अनुकूलता मिले वैसा हो तो होता है। जहां मुझे मान मिले उस मुनि को हाथ जोडूं’, ऐसी भावना वाला कितना बडा वर्ग? पिचत्तर फीसदी ऐसा वर्ग है। यह आज की विडम्बना है। ऐसी बीमार मानसिकता में अच्छे परिणामों की आशा कैसे की जा सकती है? -सूरिरामचन्द्र

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