रविवार, 22 नवंबर 2015

बालक के संस्कारों में मां की भूमिका



मां होते हुए, अपनी असावधानी की बदौलत वैद्य की जरूरत पैदा करे, वह मां ही नहीं है। मां कहलाती है बालक की हितैषी और उसकी सावधानी के अभाव में वैद्य बुलाना पडे, वह उचित है? सावधानी रखते हुए तीव्र कर्मोदय से आई व्याधि के लिए वैद्य की शरण वाजिब है। बालक बडा हो जाए तब व्याधि हुई हो तो वैद्य उसे औषधि देता है, किन्तु दूध पीते बालक को घुट्टी में अमुक औषधि तो मां-बाप ही देते हैं, क्योंकि उस समय तो मां-बाप खिलाएं वो वह खाता है और पिलाएं वो पीता है। सम्यग्दृष्टि माता बालक की बाल्यकाल से ही चिंता करके उसे अभक्ष्यभक्षण या अपेयपान नहीं करने देती है। खुद ऐसा खाए-पीए ही क्योंकि जिससे बालक के मुँह में ऐसी चीज जाए! खुद के बोलने में भी जरा भी असत्य नहीं आए। बोलना, चलना, रीतभाँत आदि ऐसे ही होते हैं कि बालक में कोई खोटे संस्कार पडें ही नहीं। बालक को झूठ नहीं बोलने दे। मां बोलते, चलते, हंसते, खेलते इस प्रकार अपने प्रत्येक वर्तन-व्यवहार द्वारा बालक को ऐसे संस्काररूपी औषधि देती ही रहती है। गोद में बैठे बालक पर मां जो कुछ बोलती है उसकी छाया पडती है। मां के शब्द निष्फल नहीं जाते। हालांकि बालक समझता नहीं हो उस समय बहुत अधिक मात्रा में असर नहीं होता, किन्तु नियमित रूप से उसके कानों में संस्कारों की बातें डाली जाए तो परिणाम निश्चित रूप से आते ही हैं। माता गाली बोले तो थोडे दिन तो उस पर असर नहीं होगा, लेकिन जैसे ही वह बोलना सीखेगा, उसके मुँह से वही गाली निकलेगी। तो यह क्या वह सीखकर निकला था? ना, तो यह किसने सिखाया? मां ने!

बालक बडा होता है वहां तक उसमें जो भी दुर्गुण आते हैं, वह माता-पिता के कारण ही आते हैं। बोलते, चलते, खाते-पीते, बात करते, मां-बाप बालक में जो संस्कार डालते हैं वे बालक में आते हैं। मां-बाप का जिस प्रकार का व्यवहार बालक देखता है, वैसे संस्कार बालक में आते ही हैं।

माता खुराक ही ऐसी खाती है कि बालक में कोई खोटी बुद्धि नहीं जन्मे। मां द्वारा खाई गई वस्तु से पेट में दूध बनता है और वह बालक पीता है। जैसी चीज जिस विचार से खाई गई है, उसके परमाणु दूध में गए, वे बालक के पेट में जाते हैं और परिणाम वैसा आता है। पहले क्षत्रिय राजाओं के पुत्रों को रानी के अलावा कोई दूध नहीं पिलाता था। सिंह का बच्चा सिंहनी का ही दूध पीता है।

हितैषी मां-बाप जन्म से ही बालक की संभाल ऐसी रखते हैं, दिखाव ही ऐसा रखते हैं कि बालक का जीवन मलिन न हो। यदि बालक को निर्विकारी बनाना हो तो उसे रंगरागवाले मकान में नहीं सुलाया जाता। अर्धनग्न शरीर से झूला झूलती स्त्रियों के फोटो वाले खण्ड में उसे नहीं रखा जाता। आज के सम्पन्न गृहस्थों के घरों में ऐसे फोटो होते हैं न? जीवों के साथ अनादिकाल से विषयवासनाएं तो लगी हुई ही है, फिर उसे ऐसे स्थानों में पाला-पोषा जाए तो वह विरागी होगा? देखे वैसे संस्कार पडते हैं।

मां-बाप द्वारा बालक के सामने अयोग्य खाना-पीना-पहिनना अथवा अयोग्य प्रकार से वर्तन करना, यह बालक के लिए नाशक है। बच्चे के देखते हुए बाप बीडी-सिगरेट पीए तो बच्चा इसे करणीय मानेगा ही। बाप थाली धोकर पीता है वह बच्चा जल्दी नहीं सीखता है, अमुक समय के बाद ही सीखता है, किन्तु बीडी पीना जल्दी सीखता है। बच्चे में जिन अच्छे गुणों का वपन करना होता है वे खुद में ही न हों और गलत क्रियाएं, गलत प्रवृत्तियां चालू ही हों तो फिर बच्चे में भी परिणाम वही आएं तो उसमें नई बात क्या है?-सूरिरामचन्द्र

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