मंगलवार, 5 जुलाई 2016

मन में निवृत्ति का भाव अवश्य हो



यदि शक्ति हो तो पंचेन्द्रिय प्राणिवध, महारंभ तथा महापरिग्रह आदि को छोड ही देना चाहिए। यदि अपनी चले तो हमें इन संयोगों से हट ही जाना चाहिए। इसलिए तो अपने यहां सुखी मनुष्य निवृत्ति लेकर सिद्धक्षेत्र में रहने लगते हैं और यथाशक्ति परिग्रह को घटाने के लिए परिग्रह का सदुपयोग करने लगते हैं। साधु भी नहीं बना जा सकता है और ऐसी निवृत्ति भी नहीं ली जा सकती है, इसका कारण तो आपने सोचा होगा न! साधु बनने की शक्ति नहीं और लोभ, ममता आदि से निवृत्त होने का मन भी नहीं होता; मान लीजिए कि अभी ऐसी ही स्थिति है तो भी यह लोभ और यह ममता खटकती है? आपको बहुत लोभ या बहुत ममता न हो, फिर भी आपका स्थान ऐसा है कि कदाचित् बाजार में जाना पडे, परन्तु मन में क्या है? आप कह सकते हैं कि यह सब अच्छा तो नहीं लगता है, परन्तु संयोग ऐसे हैं कि यदि अभी छोड दें तो बहुत हानि हो जाए, इज्जत चली जाए और आश्रितों के हाल बेहाल हो जाएं। शेष जिन्दगी सुख से बीते नहीं और समाधि टिके नहीं, ऐसी दशा है।आपके सामने ऐसी स्थिति हो सकती है और इसी कारण आप ऐसा कह सकते हैं, परन्तु इसमें हृदय की क्रीडा नहीं, वास्तविकता होनी चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

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