हमारी आत्मा पर पडा हुआ आवरण इतना सूक्ष्म है, हमारी आत्मा पर छाये हुए पर्दे
इतने बारीक हैं कि इन स्थूल इन्द्रियों के माध्यम से हम उन्हें देख ही नहीं पाते
हैं। हमारी स्थूल दृष्टि, हमारी
स्थूल प्रज्ञा, स्थूल
बुद्धि की पहुँच भी वहाँ तक प्रायः नहीं हो पाती है, क्योंकि हमारी आत्मा पर आवरण छाए हुए हैं। आत्मा पर
आए हुए आवरण अगर हट जाएं तो हमें स्वरूप-दर्शन का बोध हो जाए। जब हम अपने मूल
स्वरूप का दर्शन नहीं कर पाते हैं, तो फिर मूल सत्ता की पहिचान भी हम नहीं कर पाते हैं। जब मूल सत्ता की पहिचान
हम नहीं कर पाते हैं तो फिर उस मूल सत्ता का ही विनाश हम करने लगते हैं। जिसे हमने
देखा नहीं, उसके
प्रति हमारी आस्था जागृत नहीं होती है। हमारी श्रद्धा जागृत नहीं होती है। जिस मूल
सत्ता से हमारा कोई परिचय नहीं होता है, उसके विनाश, उत्थान
से हमारा कोई सरोकार नहीं रह जाता है।
आपने अपने जीवन में जो संस्कार प्राप्त किए हैं, कई जन्म-जन्मांतरों के संस्कार, बचपन के संस्कार, वात्सल्य के संस्कार ही आगे चलकर
विकसित, पुष्पित, पल्लवित होते हैं और उन संस्कारों
के अनुसार जीवन क्रम चलता रहता है। आपको बचपन से ही ये संस्कार मिले हैं कि जीवन
में अधिक से अधिक पैसा कमाना। अधिक से अधिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करना और अधिक से
अधिक ऐशो-आराम की सुविधाएँ जुटाना। उन्हीं संस्कारों के आधार पर आपका जीवन चलता
रहता है। ऐसी स्थिति में आप अधिक से अधिक अपने शरीर से जुडे रहते हैं। अधिक से
अधिक अपने परिवार से जुडे रहते हैं। अपने शरीर पर ही आपका ध्यान केंद्रित हो जाता
है। अपने परिवार के सदस्यों पर ध्यान केंद्रित हो जाता है। इससे अधिक कुछ हुआ, तो आप समाज से जुड जाते हैं। समाज
के प्रति आपका ध्यान चला जाता है। किन्तु आपके चैतन्य, आपकी आत्मा के प्रति आपका ध्यान नहीं जाता है। आत्मा
को आपने पूरी तरह भुला दिया है।
जीवन के क्षणों का जिस दिशा में आप उपयोग कर रहे हैं,
अगर उस पर आपकी स्वयं की सूक्ष्म दृष्टि पहुँच जाए, स्वयं का चिन्तन जीवन के उन क्षणों तक पहुँच जाए, तो आप उसी समय यह सोचने लगेंगे कि
मैं यह क्या कर रहा हूँ? अपने
जीवन के अनमोल क्षणों को किधर लगा रहा हूँ? क्या यह कार्य बुद्धिमत्ता का कार्य है कि मैं उन
नाशवान चीजों को, संसार
के सामान को बटोरने का कार्य कर रहा हूँ? ऐसे कार्य को क्या आप बुद्धिमानी कहेंगे? अपने जीवन में लगातार ऐसा करते जाएं, करते जाएं, तो फिर आप स्वयं के शत्रु बन रहे हैं कि नहीं? स्वयं का बोध आपने किया नहीं है और
बिना ज्ञान के आप आचरण करते चले जा रहे हैं, करते चले जा रहे हैं तो आपका वह आचरण कैसा होगा? -सूरिरामचन्द्र
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