दुनिया में कहावत है कि ‘चिन्ता चिता समान’। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से
सुलगाती है। चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को
कोई-कोई व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और
चिन्ता कई दिनों तक, कई
वर्षों तक जलाती, सताती
रहती है। इस प्रकार चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है।
चिन्ता से घिरे हुए आदमी को खाना-पीना अच्छा नहीं
लगता है। खाता अवश्य है, किन्तु
उस खाने में उसे रस नहीं आता है। खाया न खाया ऐसा करके उठ जाता है। चाहे जैसा भी
रसमय भोजन हो, मिठाइयों
का थाल सामने रखा हो, भिन्न-भिन्न
सब्जी, भिन्न-भिन्न
चटनियां-नमकीन के साथ रखी हुई हो और रसोई गरमागरम हो, किन्तु चिन्ता से घिरे हुए आदमी को इसमें से कोई भी
वस्तु आनन्द देने वाली नहीं लगती है। ग्रास मुंह में डालता जरूर है, किन्तु दिमाग पर दूसरी ही धुन चलती
रहती है।
चिन्तातुर आदमी को निकट रहने वाले आज्ञाकारी और सदा
अनुकूल व्यवहार करने वाले स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है। चिन्ता से
घिरने के पूर्व जिनका मुखदर्शन मोह उपजाता था, जिनके पास बैठकर मधुर वार्तालाप करने में चाहे जितना
भी समय लग जाए, वह
समय आराम से गुजर जाता था, जिनका
कुछ घण्टों का विरह भी सहन नहीं होता था और जिनके साथ आनन्द करता हुआ व्यक्ति सारी
दुनिया को भूल जाता था; ऐसे
ही स्वजनों का मिलन चिन्ता से घिरे आदमी को कंटक भरा लगने लगता है।
‘तुम्हे क्या चिन्ता है?’ उसको यदि कोई ऐसा पूछे तो भी उसे
अच्छा नहीं लगता है। निकट के स्नेहियों पर भी बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के
कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके
विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती
है, उसी प्रकार
निद्राहारिणी भी है।
ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन
है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए। सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना
देती है, जबकि आत्मचिन्ता
व्यक्ति को धीर, वीर
और गंभीर बनाती है। सचमुच में सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग से जिस आत्मा में
सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस
आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह
चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती
है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और मोक्ष की ओर गति करती है।-सूरिरामचन्द्र
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