खाने में कितनी उपाधि है? खाने में जो उपाधि है, उसे देख, भोजन पर गुस्सा न आए, वह
बुद्धिशाली नहीं है। पेट की मांग नहीं होती तो क्या हल्के व्यक्तियों की गुलामी
करनी पडती? कई
लोग कहते हैं, ‘पेट
कराए वेठ’। भोजन के पहले और भोजन
के बाद क्या कम उपाधि है? पहली
चिन्ता भोजन प्राप्ति की, भोजन
मिल जाए तो यह जीभ भूल कराती है, फिर
पाचनतंत्र बिगडता है और उपाधि बढ जाती है। ज्यादा खाया तो मौत के मुँह में भी जा
सकते हैं। खाने के पहले समस्या और खाने के बाद समस्या। भोजन के बाद दूसरे दिन
मल-शुद्धि न हो तो भी चिन्ता, उसके
लिए अरण्डे का तेल भी पीना पडता है। खाने में सुख कितना? थोडा। जीभ खुश हो उतना। मात्र शरीर के निर्वाह और
धर्म आराधन के लिए भोजन करने वाले कितने? खाने को कितना चाहिए और उसके लिए परिग्रह कितना? खाने के लिए जी रहे हैं या जीने के लिए खाना है?
तप किसलिए? तप भूख से मरने के लिए नहीं है, बल्कि खाने की उपाधि दूर करने के लिए तप है। इन्द्रियां वश में रह सके, इसके लिए तप है। ज्यादा खाया तो इन्द्रियां
बेकाबू, तामसिक खाया तो बेकाबू, राजसिक खाया तो इन्द्रियां बेकाबू।
सात्विक और सीमित आहार, ताकि शरीर धर्म आराधन के लिए सक्रिय रह सके, ऐसा कितने लोग सोचते हैं? जो नहीं सोचते वे दुःख भोगते हैं। भोजन
की तरह हर सुख में यही समस्या है। पहले प्राप्ति की चिन्ता, फिर उसके भोग में भी दुःख का अभाव
नहीं। ज्ञानियों का कथन है, ‘जिस
सुख में दुःख रहा हुआ है, वह
सुख वर्ज्य है।’
ज्ञानियों ने धर्म के तीन भेद अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे
पहले तप को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी
अवश्य आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी
बनने की इच्छा नहीं करता है, तब
तक इंसान नहीं बनता है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी को तप नहीं कहा जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा
निरोध को तप कहा है। आज अनेक तपस्वियों को यह बात खयाल में नहीं है। ज्ञानी
निर्दिष्ट तप करने का प्रयास किया जाए तो व्यक्ति संयमी व सच्चा अहिंसक बने बिना
नहीं रहेगा। सदाचार की नींव इच्छा
निरोध है। सदाचारी बनने के लिए इच्छाओं का निरोध किए बिना नहीं चलेगा। इच्छा निरोध
का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मानव भव जैसी
उत्तम सामग्री मिलने पर भी जो इस बात को नहीं समझ सका, वह कल्पतरु की प्राप्ति में भी भिखारी ही रहा है। यह
भौतिक सुख वर्ज्य नहीं है और अच्छा है, ऐसी बुद्धि पैदा कराने वाला मिथ्यात्व है। कर्म का प्रभाव नहीं होता तो ऐसी
मिथ्या बुद्धि कहां से होती? ऐसे
कर्मों की निर्जरा के लिए तप है। जब तक मिथ्यात्व न जाए, तब तक आत्मा में सम्यक्त्व प्रकट नहीं होता है।
मिथ्यात्व की मंदता बिना जो धर्म होता है, वह बालक की गति जैसा होता है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें