आप जानते हैं स्वर्ग में रहने वाले देवता अपार ऋद्धि
सम्पदा के स्वामी होते हैं। उन देवताओं के मन में भी उस देवलोक के किसी सुख पर
आसक्ति रह जाती है, तो
उनकी आत्मा कहाँ से कहाँ गिर जाती है। जरा-सी आसक्ति अगर उनकी कहीं रह जाती है तो
वे देवता मर कर क्या बन जाते हैं? पृथ्वी, पानी, वनस्पति में उनका जीव उत्पन्न हो जाता है। क्यों? ऐसा कैसे हो जाता है कि
पंचेन्द्रिय का जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो जाता है? जो देव अथाह वैभव के स्वामी थे, जिनके यहाँ सुख ही सुख था, वे इतने स्वर्गीय सुख के स्वामी
कहाँ से कहाँ गिर पडे?
सोचिए आप एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय का शरीर पाने के
लिए भी जीव को कितनी पुण्यवानी की आवश्यकता होती है? अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है, तब जाकर कोई भी जीव एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय
में गति पाता है। फिर अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है तो, वह आत्मा बेइन्द्रिय से तेइन्द्रिय में प्रवेश करती
है। तेइन्द्रिय से चतुरेंद्रिय में पहुँचने के लिए भी अनन्त पुण्यवानी की आवश्यकता
होती है।
इसी तरह से अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है तो जीव
पंचेंद्रिय में जाता है। और वहाँ भी अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है, तो वह देवलोक में जाता है। इतने
अनन्त पुण्यों के संचय के बाद आत्मा देवलोक में जाती है और वहाँ अगर थोडी-सी
आसक्ति भी रह जाए तो ऐसी गिरती है कि सारी पुण्यवानी खतम हो जाती है। देवलोक से
जीव सीधा एकेन्द्रिय में प्रवेश कर जाता है। यह सब किस कारण होता है? आसक्ति-भाव के कारण।
हमारी आसक्ति होती है जड पदार्थों के प्रति। आज हम
धर्मसाधना करते हैं। सामायिक करते हैं। धर्म स्थान में बैठते हैं, लेकिन हमारी वह साधना अधिकाशंतः
केवल औपचारिकता वाली होती है। क्योंकि जड पदार्थों से हमारी आसक्ति छूटती नहीं। इन
जड पदार्थों के प्रति आसक्ति भाव होने के कारण हम कितने कर्म बन्धनों में बंधे हुए
हैं?
लेकिन, उन कर्मों को तोडने की बात हमारे दिमाग में नहीं आती है कि हम धर्म-साधना को
अन्तरंग भाव से समझें, आराधना
करें और हमारी आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करें। हमारा ध्यान तो जड पदार्थों
के प्रति लगा हुआ है। उन जड पदार्थों के प्रति हमारा इतना लगाव हो गया है, इतनी आसक्ति हमारी उन जड पदार्थों
के प्रति हो गई है कि हम हमारी चेतना को तो बिल्कुल ही भुला बैठे हैं।
जड पदार्थों के साथ हमारा सम्बन्ध बहुत गहरा है।
घनिष्ठता के साथ हम जड पदार्थों से जुडे हुए हैं। उनके प्रति हमारा राग-भाव बहुत
मजबूत हो गया है। और यही राग-भाव हमें कहाँ से कहाँ पहुचाँ देते हैं, कितना नीचे गिरा देते हैं, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते
हैं।-सूरिरामचन्द्र
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