संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और
अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करें, निर्णय करें या उसकी पालना करें तो भी इसमें आश्चर्य
जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे
हुए लोगों को, स्वयं
के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी
दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है।
ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने
वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों
के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित्
भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से
मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते
हैं। किन्तु, वे
लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं।
पूर्व का पुण्य एक दिन तो खत्म होने ही वाला है और इस
भव का पाप भी एक दिन जरूर उदय में आने वाला है। उस समय अभी रसपूर्वक पाप सेवन करने
वालों की कैसी भयंकर दशा होगी? ऐसों
के भविष्य पर विचार करते हुए हृदय में दया उत्पन्न हो, यह स्वाभाविक है। स्वयं के सुख की खातिर दूसरे के सुख
को झुठलाने की इच्छा भी उत्तम आत्माओं में उत्पन्न नहीं होती है। वहां ऐसी
प्रवृत्ति की तो बात ही क्या करनी? स्वयं के निमित्त से संसार के किसी भी जीव को दुःखी नहीं करने की वृत्ति के
प्रकट हुए बिना, आत्मा
में उत्तमता प्रकट होती ही नहीं है। हम दूसरी आत्माओं को सुखी न बना सकें, उसकी कोई चिन्ता नहीं है; किन्तु संसार के किसी भी जीव को
दुःखी करने की वृत्ति तो हममें से जानी ही चाहिए। हमें मिली हुई सामग्री दूसरे
जीवों को सुख प्राप्त कराने वाली न हो सके तो भी वह कम से कम उन्हें दुःख देने
वाली तो न हो, ऐसी
सावधानी, सावचेती तो प्रत्येक
हृदय में अवश्य होनी ही चाहिए।
शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो
भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति
सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने
का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण
वह नहीं बने, उसका
पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने
के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति
कल्याण की भावना हो।-सूरिरामचन्द्र
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