आप कदाचित सुखी घर में जन्मे होंगे, परन्तु बचपन में आपके
माता-पिता ने आपको पीटा है या नहीं? थोडा-बहुत गिराने पर या
तोडने-फोडने पर मार पडी होगी न? संस्कार बचपन से ही कैसे मिले हैं? सुखी
मनुष्य सांसारिक चीज का नुकसान सहन न होने से मारता है और खराब मार्ग में जाने से
रोकने के लिए पीटता है,
इन दोनों में भेद है या नहीं है? सुखी
मनुष्य सज्जन हो तो सांसारिक चीज को महत्त्व नहीं देता है। स्नेह और सम्बंध के
सामने उस नुकसान की कोई कीमत नहीं। वह कहता है कि ऐसी भूल तो होती रहती है। परन्तु
स्नेही-सम्बंधियों में कोई खराब काम हो जाए तो उसके लिए उपालम्भ दिए बिना वह नहीं
रहता।
प्रामाणिकता से धंधा करते हुए बाजार की उथल-पुथल से पुत्र लाख रुपये खो आता है
तो वह मुंह नहीं बिगाडता और पुण्य-पाप की बात करके आश्वासन देता है। जबकि वही पिता
लडके द्वारा अनीति से पांच लाख कमाकर आने की स्थिति में मुंह बिगाडता है और अनीति
से धनवान बनने की अपेक्षा नीति से जो मिले उसी में जीवन चला लेना अच्छा है, ऐसा
समझता है। अनीति से पांच लाख लेकर आए तो भी उपालम्भ देना और नीति से व्यवहार करते
हुए लाख खोकर आए तो भी उपालम्भ न देना, यह बात आपको रुचती है?
आर्यदेश के सामान्य संस्कार ऐसे होते हैं कि अच्छे कुटुम्बों में सांसारिक
कार्य बडों को पूछे बिना नहीं होते। परन्तु, किसी प्रसंग पर अच्छा काम
बडों को पूछे बिना भी किया जाता है। ऐसे भी पिता होते हैं कि किसी अच्छे काम में
पूछे बिना लडका लाख रुपया दे आया हो तो कहते हैं कि ‘मेरा
लडका है न? ऐसे काम में तो वह देकर आएगा ही।’ इस प्रकार धर्मी मां-बाप का
लडका समझता है कि धर्म करने का मन हो जाए और माता-पिता को पूछने का अवसर न हो, तो
बिना पूछे भी धर्म करने में कोई आपत्ति नहीं है। उसे विश्वास होता है कि मेरे
माता-पिता धर्म के काम में बाधा देने वाले नहीं हैं। अवसर हो तो वे पुत्र-पुत्री
वयस्क होने पर विनय धर्म का लोप न करें और माता-पिता की अनुमति अच्छे काम में भी
ले लें। परन्तु, ऐसा अवसर न हो और धर्म करने का मन हो जाए तो वह धर्म करने से रुक
जाए, ऐसा नहीं होता। इसलिए उत्तम कुल-जाति आदि के महत्त्व को शास्त्र ने मान्य रखा
है। ऐसा होते हुए भी अकुलीन कुल में कोई जीव पाप के उदय से आ गया हो, परन्तु
पूर्व में धर्म करके आया हो और उसके पूर्व भव के संस्कार जागृत हो जाएं तो वह धर्म
पा सकता है। बात यह है कि हम कुल, जाति आदि के असर को नहीं मानते हैं, ऐसा
नहीं। परन्तु,
इस काल में, उत्तम गिने जाने वाले जाति, कुल
में पहले जो उत्तम प्रभाव था, वह बहुत क्षीण हो चुका है। क्योंकि, आचार-विचार
और संस्कार में बडा अंतर आ गया है।-सूरिरामचन्द्र
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