जब मन इन्द्रियों के वशीभूत होता है, तब संयम की लक्ष्मण रेखा लाँघे
जाने का खतरा बन जाता है, भावनाएँ बेकाबू हो जाती हैं,
असंयम से मानसिक संतुलन बिगड जाता है, इंसान
असंवेदनशील हो जाता है, मर्यादाएँ भंग हो जाती हैं। इन सबके
लिए मनुष्य की भोगवृत्ति जिम्मेदार है। भौतिक सुख-सुविधाएँ, जबर
महत्वाकांक्षाएँ, तेजी से सब कुछ पाने की चाहत मन को असंयमित
कर देती है, जिसके कारण मन में तनाव, अवसाद,
संवेदनहीनता, दानवी प्रवृत्ति उपजती है;
फलस्वरूप हिंसा, भ्रष्टाचार, अत्याचार, उत्पीडन, घूसखोरी,
नशे की लत जैसे परिणाम सामने आते हैं। काम, क्रोध,
लोभ, ईर्ष्या असंयम के जनक हैं व संयम के परम
शत्रु हैं। इसी तरह नकारात्मक प्रतिस्पर्धा आग में घी का काम करती है।
असल में सारे गुणों की डोर संयम से बँधी होती है। जब यह डोर टूटती है तो सारे
गुण पतंग की भाँति हिचकोले खाते हुए व्यक्तित्व से गुम होते प्रतीत होते हैं। चंद
लम्हों के लिए असंयमित मन कभी भी ऐसे दुष्कर्म को अंजाम देता है कि पूर्व में किए
सारे सद्कर्म उसकी बलि चढ जाते हैं। असंयम अनैतिकता का पाठ पढाता है। अपराध की ओर
बढते कदम असंयम का नतीजा हैं। इन्द्रियों को वश में रखना, भावनाओं पर काबू पाना संयम को परिभाषित करता है। इंसान को इंसान बनाए रखने
में यह मुख्य भूमिका अदा करता है। विवेक, सहनशीलता, सद्विचार, संवेदनशीलता, अनुशासन,
संतोष संयम के आधार स्तम्भ हैं। धैर्य और संयम सफलता की पहली सीढी
हैं। अच्छे संस्कार, शिक्षा, सत्संग
आदि से विवेक को बल मिलता है। मेहनत, सेवाभाव, सादगी से सहनशीलता बढती है। चिंतन, मंथन, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि से विचारों का
शुद्धिकरण होता है। पभु की प्रार्थना, भक्ति से मनुष्य
संवेदनशील होता है। दृढ निश्चय से जिंदगी अनुशासित होती है। यह सब मिलकर इंसान को
संयमशील बनाते हैं, यही अध्यात्म है।
अध्यात्म वह यज्ञ है, जिसमें सारे दुर्गणों की आहुति
दी जा सकती है एवं गुणों को सोने-सा निखारा जा सकता है। सोने में निखार के लिए उसे
अग्नि में तपाया जाता है, आग में तपकर वह कुंदन बन जाता है,
उसी प्रकार जीवन (आत्मा) में निखार के लिए संयम का मार्ग है। संयम
की तपिश में दुर्गुण जल कर नष्ट हो जाते हैं। आधुनिक दौर में संयम-पालन सहज नहीं
है, लेकिन नामुमकिन भी नहीं है। जिन लोगों के लिए भोग से योग
की ओर लौटना मुश्किल है, वे दोनों में संतुलन बनाकर तो रख ही
सकते हैं। आज जीवनशैली व दिनचर्या में बदलाव की दरकार है। यदि हम इस विनाशक विकास,
भौतिकता की चकाचौंध में धर्म को अपने साथ नहीं रख पाए तो पतन
निश्चित है। मनुष्य में देव और दानव दोनों बसते हैं, हम भले
ही देव न बन पाएँ, लेकिन दानव बनने से तो हमें बचना ही
चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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