संसार के ऐश्वर्य भोगने में सुख नाम मात्र का और परिणाम में दुःख का पार नहीं, इसीलिए
ही तारकों ने केवल मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। ज्ञानीगण परिणामदर्शी थे। दुनिया
में भी चतुर वे ही गिने जाते हैं जो कि परिणाम का विचार करते हैं। आप परिणाम का विचार
करते हैं क्या?
आप इस संसार में जो प्रवृत्ति कर रहे हैं, उसका क्या परिणाम आएगा, इसका खयाल करते हैं? शायद
कोई भाग्यवान ही ऐसा खयाल करता होगा।
पाप प्रवृत्ति के परिणाम का आदमी को वास्तविक खयाल आ जाए तो वह कंपित हुए बिना
नहीं रहेगा। परिणाम के खयाल वाला पापभीरू नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। भीरुता
की कोई प्रशंसा नहीं करता है। ज्ञानी भी भीरुता को निकालने और वीरता धारण करने का
उपदेश देते हैं। तदुपरांत भी वे ही ज्ञानीगण फरमाते हैं कि पाप की भीरुता अवश्य ही
सीखनी चाहिए। पाप भीरुता,
यह सामान्य कोटि का सद्गुण नहीं है।
एक तरफ सत्वशील बनने का उपदेश, दूसरी तरफ पाप भीरू बनने का
उपदेश, इन दोनों संबंधों का परस्पर विचार कर देखो। इनमें परस्पर विरूद्ध भाव नहीं है।
पापभीरुता सच्ची सत्वशीलता को विकसित करने वाली वस्तु है। विचार तो करके देखो कि
पाप किए बगैर जीवन बिताना कठिन है या जीवन को पापमय दशा में बिताना कठिन है? पाप
करना सरल है या पाप से बचना सरल है? निष्पाप जीवन जीना हो तो इन्द्रियों
के ऊपर नियंत्रण रखना पडता है। मन-वचन-काया के ऊपर संयम धारण करना पडता है और भूख-तृषा, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी
आदि सहन करना पडता है।-सूरिरामचन्द्र
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