सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

शाश्वत सुख के लिए मोक्ष ही प्राप्तव्य



जहां दुःख का नामोनिशान नहीं, सुख की अपूर्णता नहीं, जहां सुख कभी घटने वाला और नष्ट होने वाला नहीं, ऐसा स्थान एक मात्र मोक्ष ही है। ऐसे स्थान की प्राप्ति हो तो ही सुख के संदर्भ में संसारी जीवों की जो इच्छा है, वह पूर्ण हो सकती है। इसी कारण धर्म से अर्थ, काम और मोक्ष इन तीनों की प्राप्ति होने पर भी अर्थ-काम की प्राप्ति के लिए धर्म करने का निषेध कर एक मात्र मोक्ष के लिए धर्म करने की आज्ञा अनंतज्ञानियों ने फरमाई है।

मोक्ष क्या है? मोक्ष अर्थात् अपनी आत्मा के स्वरूप का पूर्ण प्रकटीकरण! पुण्य और पाप से सर्वथा मुक्त बनना, इसी का नाम मोक्ष है। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त होती है, तब तक आत्मा शुद्ध स्वरूप वाली नहीं है। अभी अपनी आत्मा पुण्य-पाप के अधीन है। पुण्योदय से अनुकूल और पापोदय से प्रतिकूल सामग्री प्राप्त करती है। इस स्थिति को दूर किए बिना एकांत सुखमय स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती है। हमें दुःख रहित, पूर्ण और शाश्वत सुख चाहिए। दुनिया में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो शाश्वत काल टिक सके। पुण्य भी शाश्वत काल टिकने वाला नहीं है। शाश्वत काल रहने वाला एकमात्र आत्म-स्वरूप है। आत्म-स्वरूप प्रकट हो तो शाश्वत सुख मिले। स्व-स्वरूप की प्राप्ति बिना आत्मा एक स्वरूप में शाश्वत काल टिक नहीं सकती, क्योंकि पुण्य-पाप के योग से स्थिति बदलती रहती है।

पुण्य और पाप, इन दोनों से मुक्त होने का साधन एक मात्र धर्म है। मोक्ष के उद्देश्य से किए गए धर्म से आत्मा पर लगे कर्मों की निर्जरा होने लगती है। उस समय पुण्य का बंध भी हो तो वह पुण्य आत्मा को मोक्ष की साधना में सहायक बनता है, अर्थात् वह पुण्यबंध मोहित नहीं होने देता है। वह पुण्य तो अर्थ-काम की उत्तमोत्तम सामग्री देता है, फिर भी वैराग्य जीवित रहता है, जीवित रखता है। अतः आत्मा उस सामग्री को मोक्ष-साधना में सहायक बना सकता है। धर्म से अर्थ-काम की प्राप्ति अवश्य होती है, परन्तु अर्थ-काम की प्राप्ति के उद्देश्य से धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए। क्योंकि, धन-दौलत और इन्दि्रय-सुख शाश्वत नहीं हैं, इनका भोग और इनकी आसक्ति आत्मा को दुर्गति में ले जाती है।

अर्थ-काम की वासना तो आत्मा को सच्चे सुख से दूर रखने वाली है। उस वासना को दूर कर आत्म-स्वभाव प्रकट करने की भावना करनी चाहिए। अर्थ-काम से सुख मिलता है’, यह बात आज सभी मान बैठे हैं और इसी के पीछे भाग रहे हैं, इन्हें पाने के लिए लोग सारी जोड-तोड कर रहे हैं, नीच से नीच काम करने तक को तैयार हो जाते हैं, लेकिन यह सोचना भूल जाते हैं कि इनसे आज तक कितने लोग चरम सुख पा सके हैं? अर्थ-काम से प्राप्त क्षणिक सुख में लुब्ध बनने से कितने दुःख उठाने पडते हैं? शाश्वत सुख पाना हो तो अल्पकालीन सुख का लोभ छोडना ही चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें