सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

जीवन को सफल बनाने का उपाय




यदि संकल्प किया जाए तो अन्य सभी भवों की अपेक्षा इस भव में सच्चे सुख की विशिष्ट साधना हो सकती है। यह तो सभी जानते हैं कि दुःख का मूल पाप और सुख का मूल धर्म है। पाप बिना दुःख नहीं आता और धर्म बिना सुख नहीं मिलता है’, यह सभी की मान्यता है। अतः सुख पसंद हो तो दुःख के मूल पाप से दूर रहना चाहिए और दुःख के कारणों को नष्ट करने के लिए धर्म-सेवन में अप्रमत्त बनना चाहिए। संक्षेप में कह सकते हैं कि जीवन को निष्पाप और धर्ममय बनाना, यही सच्चे सुख की साधना का उपाय है। मनुष्य जीवन को सफल बनाने का यही एक मार्ग है।

आज विचारहीनता बढ गई है। इस कारण सुखी होने की अभिलाषा होने पर भी निष्पाप व धर्ममय जीवन जीने वालों की संख्या बहुत कम है। आज अधिकांश वर्ग पापमय व धर्महीन जीवन जी रहा है। इस स्थिति में सुख की तीव्र इच्छा होने पर भी दुःख दूर न हो और सुख प्राप्त न हो तो कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है। दुःख की बात है यह है कि सबको सुख की तीव्र इच्छा है और अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा द्वारा प्रदर्शित सुख प्राप्ति का उपाय भी विद्यमान है, फिर भी अधिकांश जीव विचारहीनता के कारण दुःख को ही बढाते हैं और ऐसे उत्तम मानव भव को हार कर सुख की सच्ची साधना से वंचित रह जाते हैं।

सभी प्राणियों में मनुष्य अभिमान पूर्वक कहता है कि सभी प्राणियों में मैं महान हूं’, बात भी सही है। वास्तविक सुख-साधना की दृष्टि से जो शक्ति मनुष्य के पास है, वह अन्य किसी के पास नहीं है। परन्तु मनुष्य भव पाकर मुझे अच्छे काम ही करने चाहिए, बुरे काम बिलकुल नहीं करने चाहिए’, यह आवश्यक विचार कोई करता नहीं है। वर्तमान में अधिकांश मनुष्य अपने दुनियावी स्वार्थ को ही अच्छा काम मान रहे हैं और इस कारण दुनियावी स्वार्थ को साधने में ही मग्न हैं।

कई लोग कहते हैं, ‘दुनिया प्रगति के मार्ग पर तेजी से आगे बढ रही है’, यह तो आत्मवंचना व परवंचना के बराबर है। अज्ञान व स्वार्थ मात्र की वृद्धि से ही आज दुनिया में अशान्ति बढ रही है। आज झूठ नहीं बोलने वाले व्यक्ति की खोज करनी हो तो दोपहर में दीपक लेकर खोज करने पर भी नहीं मिलता है, क्योंकि किसी भी संयोग में झूठ नहीं बोलने वालों की संख्या बहुत ही कम है। झूठ नहीं बोलने से अपने दुनियावी स्वार्थ का घात होता हो और थोडा झूठ बोल देने से दुनियावी स्वार्थ की सिद्धि होती हो, ‘ऐसे अवसर पर भी झूठ नहीं बोलने वाला आदमी मिलना मुश्किल है। मोह-माया में फंसे लोगों ने किसी एक धर्म के लिए भी यह निश्चय नहीं किया है कि प्राणांत कष्ट आने पर भी अमुक धर्म का त्याग नहीं करूंगा’, ऐसा क्यों हुआ है? इसका जवाब है, दुनियावी स्वार्थ की तृष्णा बढ गई और आस्तिकता चली गई। यह विपरीत मार्ग है। आस्तिक आत्मा को तो हर हालत में आत्मा, पुण्य, पाप व मोक्ष का ही विचार करना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

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