रविवार, 31 जुलाई 2016

मोह का मारक धर्म



मोह को मारकर और मोह-मारक शासन स्थापित कर मोक्ष में पधारे हुए अरिहंतों के पास हम प्रतिदिन जाते हैं; फिर भी मोह बुरा नहीं लगता, तो यह कैसे चल सकता है? सब तीर्थंकर राजकुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पास सुख-वैभव की अपार सामग्री थी। वे उसे ठुकरा कर चले गए। उनकी तुलना में आपके पास कुछ भी नहीं, फिर भी आप उसे पकड कर बैठे हो, मोह का यह कैसा साम्राज्य है? अरिहंत की आराधना करनी है तो मोह के सामने आँखें लाल करनी होगी। मोह को बढाने के लिए अनेकबार धर्म किया और मोह की मार खाते रहे। जिसे यह मोह बुरा नहीं लगता, उसके लिए तो यह मनुष्य जन्म खराब से खराब है। दुनिया जिसे अच्छा समझती है, उसे भगवान बुरा बताते हैं।

जन्म को मिटाने के लिए, जन्म न लेना पडे, ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए जो कुछ किया जाता है, वह धर्म है। मनुष्य जन्म पाकर जन्म का नाश किया जा सकता है। जन्म का नाश होना अर्थात् मरण की परम्परा का नाश होना है। जो कुछ धर्म करना है, वह जन्म का नाश करने के लिए, फिर से जन्म न लेना पडे, इसके लिए करना है। जन्म लेने की इच्छा न हो तो सर्वविरति को स्वीकार किए बिना कोई अन्य रास्ता नहीं है। सम्यग्दर्शन हो तभी सम्यग्चारित्र का भाव प्रकट होता है। संयम लेने की जिसे इच्छा नहीं, सुख को छोडने और दुःख को समभाव पूर्वक भोगने की जिसे अभिलाषा न हो, उसके पास धर्म का नामोनिशान भी नहीं है, ऐसा कहा जा सकता है। मोह को जीता-जागता रखना हो तो ज्ञान भी बेकार है। वह चाहे जितना शिक्षित हो तो भी खतरा ही है। उसकी शिक्षा अनेकों को हानि भी पहुंचा सकती है।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 30 जुलाई 2016

सच्चे माता-पिता बनो



पुत्र नाटक में जाए, सिनेमा में जाए, गलत रास्ते पर चल पडे, भक्ष्य-अभक्ष्य का खयाल न करे तो आज लोग रोकते तक नहीं हैं और कहते हैं कि समय की हवा है। यदि पुत्र पूजा नहीं करे, मंदिर में नहीं जाए तो कहेंगे कि इस पर अध्ययन का बोझा अधिक है। आप सम्यग्दृष्टि माता-पिता हैं न? आप हितैषी संरक्षक होने का दावा करते हैं न? आप कैसे उनके हितैषी हैं? कैसे संरक्षक हैं? आपने कभी यह जांच की है कि आज उनके कानों में कितना पाप-विष भरा गया है? आधुनिक वातावरण, दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा आपकी संतान में आज कितने कुसंस्कार पैदा किए जा रहे हैं? यदि इन सब बातों का ध्यान न रखो, इनकी जांच न करो तो आप कैसे उनके हितैषी हैं?

संप्रति राजा, राजा बनकर हाथी पर सवारी कर के माता को प्रणाम करने आए। तब उनकी माता ने कहा, ‘मेरे संप्रति के राजा बनने की मुझे खुशी नहीं है, परन्तु यदि वह धर्म की प्रभावना करे तो मुझे अपार हर्ष होगा।ऐसी होती है माता। और इसी राजा संप्रति ने सवा लाख मन्दिरों का निर्माण करवाया। आज की माताएं क्या कहती हैं? माता-पिता तो सब बनना चाहते हैं, बच्चों की अंगुली पकडकर सबको चलना है। अपनी आज्ञा भी सब मनवाना चाहते हैं, लेकिन ऐसी इच्छा करने वालों को स्वयं में पितृत्व एवं मातृत्व के गुण तो लाने चाहिए न? माता-पिता यदि सही मायने में माता-पिता नहीं बनेंगे तो पुत्र कभी सुपुत्र नहीं बन सकते। मैं उन्मत्त पुत्रों का पक्षधर नहीं हूं, परन्तु जैसे पुत्रों को सचमुच सुपुत्र बनना चाहिए, उसी तरह माता-पिता को भी सच्चे माता-पिता बनना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

धिक्कारने योग्य सहनशीलता



सहनशीलता तो तभी प्रकट करनी चाहिए, जब खुद के ऊपर मुसीबतों का पहाड टूट पडा हो। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, विरोधी लोग देव-गुरु-धर्म की खुलेआम निंदा कर रहे हों, उन पर चोट पहुंचा रहे हों या फिर अन्याय-अनीति से धर्म की हानि हो रही हो, अहिंसा को जड-मूल से उखाडने की बातें चल रही हो, और ऐसे संकट की घडी में कोई सहनशील बनने की सलाह दे तो ऐसी सलाह कभी भी बर्दाश्त करने योग्य नहीं है। ऐसे प्रसंगों पर सहनशीलताधारण करने वाला सहनशीलनहीं है, अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत अभिप्राय है।

अपने फर्ज से आँखें मूंदने के लिए ऐसी सहनशीलता का सहारा कभी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके विपरीत ऐसी सहनशीलता का उपदेश देने वाले धिक्कारने योग्य हैं और समाज को भी सावधान होकर ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा लुट जाएंगे। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो, अन्याय हो; तब उसका प्रतिकार न करना, अनीति के खिलाफ खडे न होना, मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतीकार के लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है।-सूरिरामचन्द्र

अभक्ष्य का सेवन दुर्भाग्यपूर्ण



आप लोग यदि अपनी जरूरत के लिए हिंसा को धर्म मानो तो आर्य व अनार्य में भेद क्या है? आज बदलाव आया है। अनार्यदेश में आज हिंसा के खिलाफ आवाज उठ रही है, प्रोटेस्ट हो रहा है और हिंसा शांत करने के प्रयास हो रहे हैं। जबकि आर्य देश में पैदा हुए लोग हिंसा को बढाने के प्रयत्न कर रहे हैं। यहां से वहां जाकर आनेवाले, नकलची बनकर, पाप की क्रियाओं का प्रचार करते हैं। आज कई अच्छे घरों में भी अखाद्य-अपेय का विचार नहीं किया जाता है। कई जैनों के घर में भी शराब की बोतलें और अंडे, चटनी की तरह खाए-पिए जा रहे हैं। यह सब खाकर बलवान बनेंगे, यह मानते हैं। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है! -सूरिरामचन्द्र

बुधवार, 27 जुलाई 2016

दया नहीं, भक्ति चाहिए



आज धर्म की प्रीति में कमी हो गई है। जहां धर्म की प्रीति में कमी हो, वहां सहजतया धर्मी के प्रति भी कमी होती है। धर्म के प्रति प्रीति ही धर्मी के प्रति प्रीति बढाती है। इसीलिए आज साधर्मिक के दुःखों की बात करने के लिए बारम्बार संकेत करना पडता है कि धर्म की प्रीति प्रकट हो और वृद्धि को प्राप्त हो, इसके लिए हमें अवश्य ही जोरदार प्रयत्न करना चाहिए। साधर्मिकों के प्रति दया करने की बातें आज की जाती हैं, किन्तु साधर्मिकों के प्रति तो भक्ति होनी चाहिए, दया नहीं। साधर्मिक तो भक्ति के पात्र हैं, दया के पात्र नहीं। भक्तिपात्र के लिए दया की बात करने वाले वास्तव में धर्म से दूर हैं, क्योंकि उन्होंने धर्म और भक्ति का मर्म वस्तुतः समझा ही नहीं है। धर्म के प्रति प्रीति वाले बनो और बनाओ। अर्थात् धर्मवृत्ति से जो कार्य होने चाहिए वे शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार होने ही चाहिए। आज तो दूसरे का सत्यानाश करके फल प्राप्त करने की कोशिश लोग कर रहे हैं। बातें ऐसी करते हैं कि जिससे धर्म का बीज जलकर खाक हो जाए और सूखे हुए धर्मवृक्ष से फलों को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, इसका परिणाम क्या आता है? सच्चा साधर्मिक वात्सल्य धर्म की प्रीति के बिना हो ही नहीं सकता। समाज का गौरव यदि बढाना है, तो अपनी खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करनी चाहिए। धर्म का दायरा यदि बढाना है, तो साधर्मिक वात्सल्य को सही रूप में अपनाना होगा। -सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

प्रशंसा भ्रमित करने वाली न हो



वेश्या को रूपवान कहनी हो तो साथ में कहना पडेगा कि रूपवान तो है, परन्तु अग्नि की ज्वाला जैसी है। अनेकों को फंसाने वाली है। पैसों के खातिर जात को बेचने वाली है और निश्चित किए गए पैसे न दे तो उसके प्राण भी लेने वाली है। पूरी बात न करे और सिर्फ रूप की प्रशंसा करे, वह कैसे चले? उससे तो अनेक लोग फंसें उसकी जोखिमदारी किसकी? होशियार मनुष्य धोखेबाज हो तो सिर्फ उसकी होशियारी की प्रशंसा हो सकती है? या साथ में कहना पडे की सावधान रहना! दान देने वाला तस्करी-चोरी का धंधा करता हो तो उसके दान की बात कहते समय यह सावधानी दिलाना जरूरी है कि तस्करी और चोरी करना अपराध है। दुल्हे की प्रशंसा करे, परंतु रात्रि-अंधाहो यह बात छिपाएं, कन्या पक्ष कन्या की प्रशंसा करे, परंतु उसकी शारीरिक त्रुटियां छिपाएं तो कईयों के संसार नष्ट होने के उदाहरण हैं न? वहां कहें कि, ‘हम तो गुणानुरागी हैं!यह चलेगा? इतिहास में विषकन्या की बातें आती हैं। वह रूप-रंग से सुंदर, बहुत बुद्धिमान, गुणवान भी अवश्य, परन्तु स्पर्श करे उसके प्राण जाएं! उसके रूप-रंग की प्रशंसा करें, परंतु दूसरी बात न करें तो चलेगा? गुणानुरागी को प्रशंसा करते हुए अत्यन्त विवेक रखना पडता है।-सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 25 जुलाई 2016

गुणानुराग के नाम पर उन्मार्ग की पुष्टि



उन्मार्गी में रहे हुए गुण की प्रशंसा से उन्मार्ग की पुष्टि होती है; क्योंकि उस आकर्षण से दूसरे उसके मार्ग पर जाते हैं। ऐसा व्यक्ति भी उसकी प्रशंसा करता है’, यों समझकर जनता उसके पीछे घसीटी जाती है। परिणाम स्वरूप अनेक आत्माएं उन्मार्ग पर चढती हैं, अतः गुणानुराग के नाम से मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा अवश्य तजने योग्य है।गुण यह प्रशंसायोग्य है। यह बात नितांत सत्य है, परंतु उसमें भी विवेक की अत्यंत ही आवश्यकता है। मिथ्यामतियों की प्रशंसा के परिणाम से सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व की प्राप्ति सहज है। गुण की प्रशंसा करने में क्या हर्ज है?’ इस प्रकार बोलने वालों के लिए यह वस्तु अत्यंत ही चिंतनीय है। गुणानुराग के नाम से मिथ्यामत एवं मिथ्यामतियों की गलत मान्यताओं की मान्यता बढ जाए, ऐसा करना यह बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु बुद्धिमत्ता का घोर दिवाला है। घर बेचकर उत्सव मनाने जैसा यह धंधा है। गुण की प्रशंसा’, यह सद्गुण को प्राप्त और प्रचारित करने के लिए ही उपकारी पुरुषों ने प्रस्तावित की है। उसका उपयोग सद्गुणों के नाश के लिए करना, यह सचमुच ही घोर अज्ञानता है।-सूरिरामचन्द्र

रविवार, 24 जुलाई 2016

चोर का दान प्रशंसनीय नहीं



बहुत-से ऐसे लोग हैं कि, ‘गुणानुरागके नाम से मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा  कर स्वयं के और दूसरों के भी सम्यक्त्व को पलीता लगाने का काम आज बडे जोरशोर से कर रहे हैं। दुःख तो यह है कि इस पाप में कई वेशधारी भी अपने हाथ सेक रहे हैं। बहुतों के गुण ऐसे भी होते हैं कि जिन्हें देखकर आनंद होता है, परन्तु उन्हें बाहर बतलाए जाएं तो बतलाने वाले की प्रतिष्ठा को भी धब्बा लगे। चोर का दान, उसकी भी कहीं प्रशंसा होती है? दान तो अच्छा है, परन्तु चोर के दान की प्रशंसा करने वाले को भी दुनिया चोर का साथी समझेगी। दुनिया पूछेगी कि, ‘अगर वह दातार है तो चोर क्यों? जिसमें दातारवृत्ति हो, उसमें चोरी करने की वृत्ति क्या संभव है? कहना ही पडेगा कि, ‘नहीं। उसी प्रकार क्या वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा हो सकती है? सौंदर्य तो गुण है न? वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा करने वाला सदाचारी या व्यभिचारी? विष्ठा में पडे हुए चंपक के पुष्प को सुंघा जा सकता है? हाथ में लिया जा सकता है? इन सब प्रश्नों पर बहुत-बहुत सोचो, तो अपने आप समझ में आएगा कि, ‘खराब स्थान में पडे हुए अच्छे गुण की अनुमोदना की जा सकती है, परंतु बाहर नहीं रखा जा सकता।जो लोग गुणानुराग के नाम से भयंकर मिथ्यामतियों की प्रशंसा करके मिथ्यामत को फैला रहे हैं, वे घोर उत्पात ही मचा रहे हैं और उस उत्पात के द्वारा अपने सम्यक्त्व को फना करने के साथ-साथ अन्य के सम्यक्त्व को भी फना करने की ही कार्यवाही कर रहे हैं।-सूरिरामचन्द्र

शनिवार, 23 जुलाई 2016

विरागी कौन?


विराग का अर्थ राग का सर्वथा अभाव हो; ऐसा नहीं। राग का सर्वथा अभाव तो श्री वीतराग को होता है। जीव जहां तक वीतराग नहीं बनता, वहां तक जीव में राग तो रहता ही है। परंतु जीव में राग होने पर भी वह विरागी हो सकता है। संसार के सुख की अति आसक्ति बुरी लगे; यह आसक्ति वर्तमान में भी दुःखदायक है और भविष्य में भी दुःखदायक है, ऐसा लगे तो यह भी विरागभाव है। राग इतना तो घटा न? संसार के सुख के अति राग के प्रति तो अरुचि उत्पन्न हुई न? बाद में, विराग बढने पर ऐसा लगता है कि संसार का सुख चाहे जैसा हो, परंतु वह सच्चा सुख नहीं ही है।इसमें भी राग तो घटा न? फिर ऐसा लगे कि संसार का सुख, दुःख के योग से ही सुखरूप लगता है; सुखरूप लगने पर भी वह दुःख से सर्वथा मुक्त नहीं है और उसका भोग पाप के बिना नहीं हो सकता, इसलिए यह भविष्य के दुःख का भी कारण है; अतः संसार का सुख वस्तुतः भोगने लायक ही नहीं है।तो इसमें भी राग घटा या नहीं? जैसे-जैसे संसार के सुख का राग घटता जाता है, वैसे-वैसे विराग का भाव बढता जाता है। इस प्रकार संसार के सुख के प्रति राग का घटना ही विराग का भाव है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

भाग्यशाली कौन?



आप अपनी भाग्यशालिता को सफल कर रहे हैं या नहीं? कर रहे हैं तो वह कितने अंश में सफल कर रहे हैं? यह सत्य विचार और निर्णय आपको करना चाहिए। परन्तु, ऐसा विचार कब हो सकता है? आपको अपनी इस भाग्यशालिता का सही भान हो तब न? आप अपनी भाग्यशालिता किसमें मानते हैं? पास में बहुत लक्ष्मी हो, शरीर निरोगी हो, पत्नी अच्छी मिली हो, संतान भी अच्छी हो, लोग आपके प्रति आदरभाव प्रकट करते हों, आप जहां जाएं वहां आपकी पूछ होती हो, आपको कोई अप्रिय नहीं बोल सकता हो और आपका सामना करने वाले को आप बर्बाद कर सकते हों, विषयराग जनित और कषायजनित ऐसी जो-जो इच्छाएं आपके मन में पैदा होती हों और वे इच्छाएं पूरी होती हों, आप चाहे आदर के पात्र न भी हों तब भी धर्म स्थानों में आपको आदर मिलता हो, तो ही आपको लगता है कि मैं भाग्यशाली हूं।इन सब भाग्यशालिताओं के सिवाय और कोई भाग्यशालिता आपकी दृष्टि में आती है क्या? ऐसी भाग्यशालिता ही सच्ची भाग्यशालिता लगे तो इन भाग्यशालिताओं के निमित्त से आप दुर्भाग्यशालिता को पाए बिना नहीं रहेंगे, क्योंकि यह मिथ्यात्वी मान्यता है। आपकी सही व सच्ची भाग्यशालीता तो यह है कि आपको जैन कुल मिला, जिसके कारण मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक सामग्री की उपलब्धता आपको सहज है; किन्तु सवाल यह है कि आपको उसकी कद्र कितनी है? -सूरिरामचन्द्र

सोमवार, 18 जुलाई 2016

आज गुरु पूर्णिमा, गुरु कौन?


आज गुरु पूर्णिमा है। गुरु कौन? वह जिसने बचपन से हमें हंसना, बोलना, चलना, उठना, बैठना, खाना, पढना सिखलाया; यानी हमारी मां या वह जिसने हमें जीवन का अर्थ समझाया, आदर्शों व संस्कारों से हमें परिपूर्ण किया, हमारे पिता; या वह जिन्होंने हमें स्कूल में विभिन्न विषयों का ज्ञान करवाया या वह जिसने हमें किसी विशेष विधा में पारंगत किया अथवा वह जिसने हमें यह बोध कराया कि हम कौन हैं, कहां से आए हैं, हम कैसे कर्म करेंगे तो कहां जाएंगे और हमारा उद्धार/कल्याण कैसे हो सकता है, हम कैसे आत्मा से परमात्मा बन सकते हैं, इस बार-बार के भव-भ्रमण से छुटकारा पाकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकते हैं?

ये सभी किसी न किसी रूप में हमारे गुरु हैं; परन्तु क्या एक व्यक्ति के इतने गुरु हो सकते हैं? जीवन विशाल है और ज्ञान की कोई सीमा नहीं। आकाश, चांद, सितारे, पर्वत, नदी, पानी, वर्षा, बादल, पुष्प, वृक्ष, सूर्य, पंछी, जानवर तक मनुष्य के गुरु हैं, जो व्यक्ति हमें जाने-अनजाने छोटी-सी बात भी सिखाता है, वह भी हमारा गुरु है। कभी किसी व्यक्ति के जीवन से भी हम बहुतकुछ सीखते हैं, हम स्वयं भी अपनी भूलों से, अनुभवों से कुछ न कुछ सीखते हैं, तो क्या ये सब भी हमारे गुरु हुए, हम भी अपने गुरु हुए?

गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात्, रुशब्दः प्रतिरोधकः।
अन्धकार-निरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ।।

"गु" शब्द का अर्थ हैं अंधकार और "रु" शब्द का अर्थ है- उसका नाश करने वाला। अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करने वाला गुरु कहलाता है। गुरु ज्ञानरूपी सूर्य है।

"गुरु बिन ज्ञान कहां जगमाही?" कई महान् कवियों ने गुरु के संबंध में अपने काव्य में बहुतकुछ कहा है-

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष !
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष!!
गुरु धोबी शिष्य कापडा, साबू सिरजन हार !
सुरती सिला पुर धोइए, निकसे ज्योति अपार!!
गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ-गढ काढै खोट!
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट !!
कबीरा तै नर अंध हैं, गुरु को कहते और !
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर !!
गुरु गोविन्द दोऊ खडे, कांके लागूं पाय !
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय!!
जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर !
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर!!
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त !
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त!!

लेकिन, गुरु कैसा हो? इस संबंध में श्रीमदरायचन्द्रजी ने एक बहुत ही सुन्दर उक्ति कही है-

आत्मज्ञान समदर्शिता विचरे उदय प्रयोग ।
अपूर्ववाणी, परमश्रुत, सद्गुरुलक्षण योग ।।

जो गुरु आत्मज्ञान से युक्त हो, समदर्शिता और समता का आचरण करे, आत्मस्वभाव में रमण करे, वीतराग परमात्मा की वाणी सुने-सुनाए और परमश्रुत (जिनागमाक्त आज्ञा) के अनुसार अपना जीवन चलाए, वही सद्गरु है। जैन तत्त्व दर्शन में कहा गया है कि गुरु निर्ग्रन्थ हो, अर्थात् उसके मन में राग-द्वेष, मोह-माया, छल-कपट, विषय-कषाय की गांठें न हो, वह गुरु। ऐसे निर्ग्रन्थ गुरु के आवश्यक सूत्र में 36 गुण बताए हैं-

पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो
चउव्विह-कसायमुक्को, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो
पंच-महवयजुत्तो, पंचविहाऽऽयार-पालण-समत्थो
पंचसमिओ, तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरु मज्झं

जो पांचों इन्द्रियों की विषयासक्ति को रोकने वाला (वश में करने वाला) हो, ब्रह्मचर्य की नवविध गुप्तियों (बाडों) को धारण करने वाला हो, क्रोधादि चार प्रकार के कषायों से मुक्त हो, इस प्रकार इन 18 गुणों से युक्त हो, तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों से युक्त हो; ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पांच आचारों का पालन करने में समर्थ हो, पांच समिति और तीन गुप्ति का सम्यक आचरण करता हो, इस प्रकार इन 36 गुणों से सम्पन्न साधक ही मेरा गुरु है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।।

वैदिक संस्कृति में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर कहा गया है। ब्रह्मा इसलिए क्योंकि वह सृजनकर्ता होता है। एक मानव को, शिष्य को ध्यान-संस्कार व गुणों से सुसज्जित कर वह उसे सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाता है। विष्णु जो पालन करता है, प्राचीनकाल में गुरु गृह में विद्यार्थी गुरु की सेवा करते थे और गुरु उन्हें शिक्षा देने के साथ-साथ उनका पालन-पोषण भी करते थे। महेश्वर; जो सृजन के साथ विलय भी करता है। गुरु महेश्वर इसलिए क्योंकि शिष्य के दुर्गुणों का संहार करता था, अपनी वाणी, उपदेश द्वारा विद्यार्थी के दुर्गुणों, उसकी कमियों को प्रेम से, कदाचित फटकार से दूर करता था। समय बदला, गुरु बदले, शिक्षा पद्धति बदली, गुरु पूर्णिमा की जगह टीचर्स डे मनाए जाने लगे हैं, परन्तु गुरु की महिमा कम नहीं हुई। आज भी गुरु ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं।


शिक्षक और गुरु में अंतर

गुरु का पद शिक्षक से बहुत ऊंचा है। पाश्चात्य संस्कृति ने गुरु शब्द के अर्थ को नहीं समझा। गुरु की अपनी मौलिक धारणाएं होती हैं। वह निष्काम भाव से शिष्य रूपी अनघड पत्थर को तराश कर सुन्दर देव प्रतिमा बना देता है। वर्तमान काल के शिक्षक और गुरु में बहुत अंतर है। शिक्षक से विद्यार्थी वह सीखता है, जो वह जानता है, क्योंकि उसने पुस्तक से ही ज्ञान ग्रहण किया होता है, जबकि गुरु से शिष्य वह सीखता है, जो उनके अंतःकरण में, अनुभूति में समाया होता है। शिक्षक से केवल आंशिक बौद्धिक जानकारी मिलती है, जबकि गुरु से शिष्य का हार्दिक अटूट संबंध होता है और वह शिष्य के जीवन का निर्माण करता है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध लेन-देन का, सौदेबाजी का होता है, जबकि गुरु-शिष्य संबंध आत्मा का, प्रेम का होता है और वह शिष्य को अनंत की ओर ले जाता है, जो ध्रुव है, सत्य है, उसका ज्ञान गुरु करवाता है। ऐसे ही गुरुओं के लिए राम चरित मानस में संत तुलसीदास जी ने लिखा है-

जे गुरु चरण-रेणु सिर धरहिं । ते जनु सकल विभव वस करहीं ।।

जो शिष्य श्रद्धानत होकर गुरु चरणों की रज को अपने सिर पर धारण करता है, तीनों लोकों का विपुल वैभव उसके चरणों में लौटता है, उसके वश में हो जाता है। लेकिन शिष्य का विनयवान होना पहली शर्त है, बिना विनीत भाव के, बिना विनम्रता के न तो उसे विद्या आ सकती है और न ही उस पर गुरु कृपा हो सकती है।

पुज्जा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुव्व संथुया ।
पसण्णा लाभइस्संति, विउलं अट्ठियं सुयं ।। उत्तराध्ययन 1/46

विनीत शिष्य पर ही गुरु प्रीतमना होते हैं। वे अपनी कृपा की अनंत वर्षा करते हुए शिष्य का निहाल कर देते हैं, उसे विपुल श्रुतज्ञान का लाभ देते हैं। रत्नत्रयी अर्थात् सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय मोक्षमार्ग प्रदान कर अनंत-अनंत काल के लिए सुखी बना देते हैं।

जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा ।
तेसिं सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इव पायवा ।।
                         दशवैकालिक 9/2/12

ऐसा विनीत शिष्य ही गुरुकृपा का श्रेष्ठतम पात्र होता है। जो शिष्य अपने अनुशास्ता आचार्य और ज्ञानदाता उपाध्याय की आज्ञा का पालन करता है, उनकी सेवा-भक्ति करके उन्हें प्रसन्न करता है, उसका सम्यग्ज्ञान उसी प्रकार विस्तृत हो जाता है, जिस प्रकार पानी का सिंचन पाकर वृक्ष विस्तार पाता है।

जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा य निच्चं ।।
                             दशवैकालिक 9/1/12

जिस शिष्य ने सद्गुरु के चरणों में बैठकर धर्म की शिक्षाएं ग्रहण की है, उस गुरु के प्रति विनय का, नम्रता का व्यवहार करना, मनसा-वाचा-कर्मणा प्रतिक्षण उनका सम्मान करना, उसका परम् कर्त्तव्य है। अतः

नमोऽस्तु गुरवे तस्मै, इष्ट देव स्वरुपिणे ।
यस्य वाक्यामृतं हन्ति, विषं संसार-संज्ञितम् ।।

जिनका वचन-पीयूष प्राणियों के संसार विष को नष्ट कर उन्हें अमर तत्व का दान करता है, उन इष्ट देवता स्वरूप सद्गुरु को नमस्कार।
अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै सद्गुरवे नमः ।।

अज्ञानमय अंधकार में अन्धे बने प्राणियों के नेत्रों को जिन्होंने ज्ञानांजन शलाका से ऑंज कर खोल दिया, उन सद्गुरु को मेरा प्रणाम्।

मूकं करोति वाचालं, पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे, परमानन्दमयम् गुरुम् ।।

जिनकी कृपा से न केवल अंधों को ऑंखें ही मिलजाती है, अपितु गूंगों को वाणी एवं पंगुओं को चलने की (पहाड लाँघने की) शक्ति मिल जाती है, उन परम् आनंदमय गुरु को मेरा प्रणाम्।

 

गुरु की आशातना से होती है दुर्गति

अविनीत शिष्यों द्वारा गुरुओं की आशातना, अपने नाम एवं गुटबाजी के चलते चरित्रनिष्ठ संतों (गुरुओं) की अवहेलना करने वालों और धर्म गुरुओं को ठेस पहुंचाने वालों और उनकी अवज्ञा करने वालों की दुर्गति निश्चित रूप से होती है। गुरुओं की महिमा के संबंध में विभिन्न धर्म शास्त्रों में बहुत कुछ कहा गया है। उनके ऋण से उऋण होना दुष्कर है। दशवैकालिक सूत्र में गुरु की पर्युपासना करने और गुरु के प्रति विनय भाव रखने को कहा गया है। यहां तक कि शिष्य को गुरुजनों के समीप किस विधि से बैठना चाहिए, इसकी भी विधि बताई गई है। दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा गया है कि-

हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए ।
अल्लीणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी ।।
न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ ।
न य ऊरुं समासेज्जा, चिट्ठेज्जां गुरुणंतिए ।।

गुरु के समीप बैठते समय अपने हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों (अंगों) को संकोच कर पूरी सभ्यता से बैठना, हाथों को न नचाना, पैरों को न फैलाना और शरीर को बार-बार मोडने (मरोडे खाने) की कुचेष्टा न करना, गुरु के न अति निकट और न अति दूर बैठना चाहिए। गुरु के एकदम सामने या पीछे बैठने का भी निषेध किया गया है, क्योंकि उससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है। गुरु के सम्मुख एकदम निकट बैठने से अविनय भी होता है और गुरु को वंदना करने वालों को व्याघात होता है। गुरु के पीछे बैठने से गुरु के दर्शन नहीं होते और उनकी कृपापूर्ण दृष्टि शिष्य पर नहीं पडती। दशवैकालिक सूत्र में ही आगे कहा गया है कि गुरु के बिना पूछे नहीं बोलना चाहिए और गुरु यदि बात कर रहे हों तो बीच में नहीं बोलना चाहिए। गुरु के समक्ष चुगली अथवा कपटपूर्ण बातें नहीं करनी चाहिए।

गुरु के प्रति अविनय अथवा अवज्ञा के संबंध में कहा गया है कि-

थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे ।
सो चेव उ तस्स अभूइभावो फलं व कीयस्स वहाय होइ ।।
जे यावि मंदेत्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे+ अप्पसुए त्ति नच्चा ।
हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा करेंति आसायण ते गुरुणं ।।
पगईए मंदा वि भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया ।
आयारमंता गुणसुट्ठियप्पा जे हीलियासिहिरिव भास कुज्जा ।।
जे यादि नागं डहरेत्र त्ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ ।
एवाऽऽयरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ।।
आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो किं जीवनासाओ परं नु कुज्जा?
आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहि-आसायण नत्थि मोक्खो ।।
जो पावगं जलियमवक्कमेज्जा आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा ।
जो वा विसं खाइय जीवियट्ठी एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ।।
सिया हु से पावय नो डहेज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे ।
सिया विसं हालहलं न मारे, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।।
जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा ।
जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ।।
सिया हु सीसेण गिरिं पि भिंदे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे ।
सिया न भिंदेज्ज व सत्तिअग्गं, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।।
आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहि-आसायण नत्थि मोक्खो ।
तम्हा अणाबाह-सुहाभिकंखी गुरुप्पसायाभिमुहो रमेज्जा ।।

ऐसे सद्गुरु किसी को श्राप नहीं देते, किन्तु उनके अविनय और उन्हें किसी भी प्रकार से ठेस पहुंचाने पर शिष्य के कर्मों का ऐसे बंध हो जाता है कि उसकी दुर्गति स्वाभाविक हो जाती है। दशवैकालिक सूत्र की उपर्युक्त गाथाओं में कहा है कि जो शिष्य गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के प्रति विनय नहीं रखता, उसका अहंकार उसके विनाश का कारण बनता है। जो शिष्य गुरु की ये मंदबुद्धि हैं, ये अल्पवयस्क हैं तथा अल्पश्रुत हैं, ऐसा कहकर गुरुओं की आशातना करता है, वह मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। गुरु चाहे मंद हो या प्राज्ञ अवज्ञा किए जाने पर शिष्य की गुणराशि उसी प्रकार भस्म हो जाती है, जिस प्रकार ईंधन अग्नि से भस्म हो जाता है। गुरु की अवहेलना करने वाले शिष्य संसार में बार-बार जन्म-मरण करते हैं। कदाचित अग्नि आफ पैर न जलाए, सांप आपको न डस सके, बहुत तगडा जहर भी कदाचित आपको न मार सके, लेकिन गुरु की आशातना के अशुभ फल से आपको छुटकारा नहीं मिल सकता।

गुरु की आशातना करना पर्वत से अपना सिर टकराना है। सोए हुए सिंह को छेडकर जगाना या भाले की नोंक पर हथेली से प्रहार करने जैसा है। पर्वत से टकराने वाले का सिर चकनाचूर हो जाता है, सिंह को जगाने वाला स्वयं कालकवलित हो जाता है और भाले की नोंक पर प्रहार करने वाले के अपने हाथ-पैर से रक्तधारा बहने लगती है। इसी प्रकार गुरु की आशातना करने वाला अविवेकी अपना ही अहित करता है। इहलोक-परलोक दोनों में ही दुःख पाता है।

प्रायः देखने में आता है कि समाज में गुटबाजी या अपने नाम अथवा तुच्छ स्वार्थों के लिए कई तथाकथित शिष्य (श्रावक-श्राविका) साधुओं (गुरुओं) की अज्ञानतावश उपेक्षा करते हैं, उनके बारे में मिथ्या प्रचार करते हैं, लोगों को गुमराह करने का काम करते हैं, समाज में विघटन अथवा अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश में गुरुओं का अपमान तक कर डालते हैं अथवा उनके प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं करते हैं। ऐसे लोगों को गुरु का महत्त्व समझना चाहिए। आदिशंकराचार्य ने अपने एक श्लोक में गुरु की महत्ता के बारे में कहा है-

शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धन मेरुतुल्यम् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।

यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो, सत्कीर्ति का चारों दिशाओं में विस्तार हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किन्तु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन न लगे तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ? गुरु के बिना जीवन अधूरा है।

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