सुख और दुःख में एकमात्र धर्म ही शरणभूत है। इसलिए धर्म ही सर्वस्व है, धर्म
ही भाई है, धर्म ही पिता है,
धर्म ही माता है। भाई, पिता और माता आदि की गरज पूरी
करने वाला धर्म ही है। अरे,
संसार के भाई, माता, पिता
आदि जो हमारी चिन्ता करते हैं, वह धर्म का ही प्रताप है। धर्म न रहे तो
पिता, माता, भाई आदि में से कोई भी खबर लेने वाला नहीं रहेगा। धर्म पुण्य के रूप में उदित
होगा तो ही सम्बंधी,
सम्बंधी रहेंगे और मित्र मित्र रहेंगे। लडका अंतिम समय तक
आपको पिता कहेगा,
चिन्ता करेगा, यह धर्म का ही प्रताप है। ऐसे
धर्म को दुनिया की सामग्री के लिए या सगे-सम्बंधियों के लिए छोडना क्या उचित है? दुनिया
की कोई सामग्री या कोई सगा-सम्बंधी जिस समय काम में नहीं आता, उस
समय धर्म काम में आता है। यह साता भी दे सकता है और असाता के समय हृदय को यह समाधि
में भी रख सकता है। अतः अवलंबन तो केवल मात्र धर्म का ही चाहिए। धर्म की रुचि
प्रकट हो और विवेक बढे तो समझ में आता है कि अपना धर्म ही हमें सब संग से छुडाकर
असंगत्व का अनुपम सुख दिलाता है! -सूरिरामचन्द्र
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