सोमवार, 11 जुलाई 2016

तत्त्वज्ञानी विरागी होता है



तत्त्वज्ञान-प्राप्त आत्मा को संसार में रहना पडे तो वह रहती है जरूर, परन्तु सावधान होकर रहती है। तत्त्वज्ञान को प्राप्त व्यक्ति उस प्रकार के कर्म के उदय से विरति को न पा सके, यह संभव है, परन्तु उसमें विराग तो अवश्य होता है। भोगों के सेवन के समय भी विराग बना रहता है। अर्थात् उसकी सारी क्रियाएं विरति को समीप लानेवाली होती हैं। आप संसार में सावधानी से रहते हैं क्या? आपने बंगले बनवाए और बहुत-सी सामग्रियां एकत्रित की, परन्तु उनमें भी क्या तब तक रह सकते हैं, जब तक कि वे रहें? प्रायः नहीं ही। तो आप अपने सुख के लिए जो सामग्री एकत्रित करते हैं, उसके विषय में क्या आपको ऐसा विचार आता है कि कौन जाने, इसे कौन भोगेगा? ज्ञान हो तो विचार आ सकता है। तत्त्वज्ञान-प्राप्त व्यक्ति ऐसा भी समझता है कि मुझे जाना है, यह निश्चित है। मेरी एकत्रित सामग्री का भोग, मेरे जीते-जी या मरने के बाद दुश्मन भी नहीं करेगा, यह निश्चित नहीं है।जो कोई बंगला बनवाते हैं, वे क्या सब उसमें रह पाते हैं? नहीं। तो बंगला बंधवाते समय बहुत रस आ जाए तो झट से ऐसा विचार भी आता है कि मूर्ख! इसमें रस आने की क्या बात है? बंगला आधा ही बंधा हो और तुझे जाना पड सकता है। जिस दिन निवास का मुहूर्त निकाला हो, उसी दिन तेरी अर्थी भी निकल सकती है।इस उम्र में, इस समय में, इस स्थान पर नहीं मरेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। दूधमुंहा भी मर सकता है, किशोर, नवयुवक, प्रौढ और वृद्ध भी मर सकता है। यदि ऐसा ज्ञान हो तो इससे भी सावधानी आती है।-सूरिरामचन्द्र

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