सोमवार, 18 जुलाई 2016

आज गुरु पूर्णिमा, गुरु कौन?


आज गुरु पूर्णिमा है। गुरु कौन? वह जिसने बचपन से हमें हंसना, बोलना, चलना, उठना, बैठना, खाना, पढना सिखलाया; यानी हमारी मां या वह जिसने हमें जीवन का अर्थ समझाया, आदर्शों व संस्कारों से हमें परिपूर्ण किया, हमारे पिता; या वह जिन्होंने हमें स्कूल में विभिन्न विषयों का ज्ञान करवाया या वह जिसने हमें किसी विशेष विधा में पारंगत किया अथवा वह जिसने हमें यह बोध कराया कि हम कौन हैं, कहां से आए हैं, हम कैसे कर्म करेंगे तो कहां जाएंगे और हमारा उद्धार/कल्याण कैसे हो सकता है, हम कैसे आत्मा से परमात्मा बन सकते हैं, इस बार-बार के भव-भ्रमण से छुटकारा पाकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकते हैं?

ये सभी किसी न किसी रूप में हमारे गुरु हैं; परन्तु क्या एक व्यक्ति के इतने गुरु हो सकते हैं? जीवन विशाल है और ज्ञान की कोई सीमा नहीं। आकाश, चांद, सितारे, पर्वत, नदी, पानी, वर्षा, बादल, पुष्प, वृक्ष, सूर्य, पंछी, जानवर तक मनुष्य के गुरु हैं, जो व्यक्ति हमें जाने-अनजाने छोटी-सी बात भी सिखाता है, वह भी हमारा गुरु है। कभी किसी व्यक्ति के जीवन से भी हम बहुतकुछ सीखते हैं, हम स्वयं भी अपनी भूलों से, अनुभवों से कुछ न कुछ सीखते हैं, तो क्या ये सब भी हमारे गुरु हुए, हम भी अपने गुरु हुए?

गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात्, रुशब्दः प्रतिरोधकः।
अन्धकार-निरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ।।

"गु" शब्द का अर्थ हैं अंधकार और "रु" शब्द का अर्थ है- उसका नाश करने वाला। अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करने वाला गुरु कहलाता है। गुरु ज्ञानरूपी सूर्य है।

"गुरु बिन ज्ञान कहां जगमाही?" कई महान् कवियों ने गुरु के संबंध में अपने काव्य में बहुतकुछ कहा है-

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष !
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष!!
गुरु धोबी शिष्य कापडा, साबू सिरजन हार !
सुरती सिला पुर धोइए, निकसे ज्योति अपार!!
गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ-गढ काढै खोट!
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट !!
कबीरा तै नर अंध हैं, गुरु को कहते और !
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर !!
गुरु गोविन्द दोऊ खडे, कांके लागूं पाय !
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय!!
जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर !
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर!!
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त !
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त!!

लेकिन, गुरु कैसा हो? इस संबंध में श्रीमदरायचन्द्रजी ने एक बहुत ही सुन्दर उक्ति कही है-

आत्मज्ञान समदर्शिता विचरे उदय प्रयोग ।
अपूर्ववाणी, परमश्रुत, सद्गुरुलक्षण योग ।।

जो गुरु आत्मज्ञान से युक्त हो, समदर्शिता और समता का आचरण करे, आत्मस्वभाव में रमण करे, वीतराग परमात्मा की वाणी सुने-सुनाए और परमश्रुत (जिनागमाक्त आज्ञा) के अनुसार अपना जीवन चलाए, वही सद्गरु है। जैन तत्त्व दर्शन में कहा गया है कि गुरु निर्ग्रन्थ हो, अर्थात् उसके मन में राग-द्वेष, मोह-माया, छल-कपट, विषय-कषाय की गांठें न हो, वह गुरु। ऐसे निर्ग्रन्थ गुरु के आवश्यक सूत्र में 36 गुण बताए हैं-

पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो
चउव्विह-कसायमुक्को, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो
पंच-महवयजुत्तो, पंचविहाऽऽयार-पालण-समत्थो
पंचसमिओ, तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरु मज्झं

जो पांचों इन्द्रियों की विषयासक्ति को रोकने वाला (वश में करने वाला) हो, ब्रह्मचर्य की नवविध गुप्तियों (बाडों) को धारण करने वाला हो, क्रोधादि चार प्रकार के कषायों से मुक्त हो, इस प्रकार इन 18 गुणों से युक्त हो, तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों से युक्त हो; ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पांच आचारों का पालन करने में समर्थ हो, पांच समिति और तीन गुप्ति का सम्यक आचरण करता हो, इस प्रकार इन 36 गुणों से सम्पन्न साधक ही मेरा गुरु है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।।

वैदिक संस्कृति में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर कहा गया है। ब्रह्मा इसलिए क्योंकि वह सृजनकर्ता होता है। एक मानव को, शिष्य को ध्यान-संस्कार व गुणों से सुसज्जित कर वह उसे सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाता है। विष्णु जो पालन करता है, प्राचीनकाल में गुरु गृह में विद्यार्थी गुरु की सेवा करते थे और गुरु उन्हें शिक्षा देने के साथ-साथ उनका पालन-पोषण भी करते थे। महेश्वर; जो सृजन के साथ विलय भी करता है। गुरु महेश्वर इसलिए क्योंकि शिष्य के दुर्गुणों का संहार करता था, अपनी वाणी, उपदेश द्वारा विद्यार्थी के दुर्गुणों, उसकी कमियों को प्रेम से, कदाचित फटकार से दूर करता था। समय बदला, गुरु बदले, शिक्षा पद्धति बदली, गुरु पूर्णिमा की जगह टीचर्स डे मनाए जाने लगे हैं, परन्तु गुरु की महिमा कम नहीं हुई। आज भी गुरु ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं।


शिक्षक और गुरु में अंतर

गुरु का पद शिक्षक से बहुत ऊंचा है। पाश्चात्य संस्कृति ने गुरु शब्द के अर्थ को नहीं समझा। गुरु की अपनी मौलिक धारणाएं होती हैं। वह निष्काम भाव से शिष्य रूपी अनघड पत्थर को तराश कर सुन्दर देव प्रतिमा बना देता है। वर्तमान काल के शिक्षक और गुरु में बहुत अंतर है। शिक्षक से विद्यार्थी वह सीखता है, जो वह जानता है, क्योंकि उसने पुस्तक से ही ज्ञान ग्रहण किया होता है, जबकि गुरु से शिष्य वह सीखता है, जो उनके अंतःकरण में, अनुभूति में समाया होता है। शिक्षक से केवल आंशिक बौद्धिक जानकारी मिलती है, जबकि गुरु से शिष्य का हार्दिक अटूट संबंध होता है और वह शिष्य के जीवन का निर्माण करता है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध लेन-देन का, सौदेबाजी का होता है, जबकि गुरु-शिष्य संबंध आत्मा का, प्रेम का होता है और वह शिष्य को अनंत की ओर ले जाता है, जो ध्रुव है, सत्य है, उसका ज्ञान गुरु करवाता है। ऐसे ही गुरुओं के लिए राम चरित मानस में संत तुलसीदास जी ने लिखा है-

जे गुरु चरण-रेणु सिर धरहिं । ते जनु सकल विभव वस करहीं ।।

जो शिष्य श्रद्धानत होकर गुरु चरणों की रज को अपने सिर पर धारण करता है, तीनों लोकों का विपुल वैभव उसके चरणों में लौटता है, उसके वश में हो जाता है। लेकिन शिष्य का विनयवान होना पहली शर्त है, बिना विनीत भाव के, बिना विनम्रता के न तो उसे विद्या आ सकती है और न ही उस पर गुरु कृपा हो सकती है।

पुज्जा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुव्व संथुया ।
पसण्णा लाभइस्संति, विउलं अट्ठियं सुयं ।। उत्तराध्ययन 1/46

विनीत शिष्य पर ही गुरु प्रीतमना होते हैं। वे अपनी कृपा की अनंत वर्षा करते हुए शिष्य का निहाल कर देते हैं, उसे विपुल श्रुतज्ञान का लाभ देते हैं। रत्नत्रयी अर्थात् सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय मोक्षमार्ग प्रदान कर अनंत-अनंत काल के लिए सुखी बना देते हैं।

जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा ।
तेसिं सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इव पायवा ।।
                         दशवैकालिक 9/2/12

ऐसा विनीत शिष्य ही गुरुकृपा का श्रेष्ठतम पात्र होता है। जो शिष्य अपने अनुशास्ता आचार्य और ज्ञानदाता उपाध्याय की आज्ञा का पालन करता है, उनकी सेवा-भक्ति करके उन्हें प्रसन्न करता है, उसका सम्यग्ज्ञान उसी प्रकार विस्तृत हो जाता है, जिस प्रकार पानी का सिंचन पाकर वृक्ष विस्तार पाता है।

जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा य निच्चं ।।
                             दशवैकालिक 9/1/12

जिस शिष्य ने सद्गुरु के चरणों में बैठकर धर्म की शिक्षाएं ग्रहण की है, उस गुरु के प्रति विनय का, नम्रता का व्यवहार करना, मनसा-वाचा-कर्मणा प्रतिक्षण उनका सम्मान करना, उसका परम् कर्त्तव्य है। अतः

नमोऽस्तु गुरवे तस्मै, इष्ट देव स्वरुपिणे ।
यस्य वाक्यामृतं हन्ति, विषं संसार-संज्ञितम् ।।

जिनका वचन-पीयूष प्राणियों के संसार विष को नष्ट कर उन्हें अमर तत्व का दान करता है, उन इष्ट देवता स्वरूप सद्गुरु को नमस्कार।
अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै सद्गुरवे नमः ।।

अज्ञानमय अंधकार में अन्धे बने प्राणियों के नेत्रों को जिन्होंने ज्ञानांजन शलाका से ऑंज कर खोल दिया, उन सद्गुरु को मेरा प्रणाम्।

मूकं करोति वाचालं, पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे, परमानन्दमयम् गुरुम् ।।

जिनकी कृपा से न केवल अंधों को ऑंखें ही मिलजाती है, अपितु गूंगों को वाणी एवं पंगुओं को चलने की (पहाड लाँघने की) शक्ति मिल जाती है, उन परम् आनंदमय गुरु को मेरा प्रणाम्।

 

गुरु की आशातना से होती है दुर्गति

अविनीत शिष्यों द्वारा गुरुओं की आशातना, अपने नाम एवं गुटबाजी के चलते चरित्रनिष्ठ संतों (गुरुओं) की अवहेलना करने वालों और धर्म गुरुओं को ठेस पहुंचाने वालों और उनकी अवज्ञा करने वालों की दुर्गति निश्चित रूप से होती है। गुरुओं की महिमा के संबंध में विभिन्न धर्म शास्त्रों में बहुत कुछ कहा गया है। उनके ऋण से उऋण होना दुष्कर है। दशवैकालिक सूत्र में गुरु की पर्युपासना करने और गुरु के प्रति विनय भाव रखने को कहा गया है। यहां तक कि शिष्य को गुरुजनों के समीप किस विधि से बैठना चाहिए, इसकी भी विधि बताई गई है। दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा गया है कि-

हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए ।
अल्लीणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी ।।
न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ ।
न य ऊरुं समासेज्जा, चिट्ठेज्जां गुरुणंतिए ।।

गुरु के समीप बैठते समय अपने हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों (अंगों) को संकोच कर पूरी सभ्यता से बैठना, हाथों को न नचाना, पैरों को न फैलाना और शरीर को बार-बार मोडने (मरोडे खाने) की कुचेष्टा न करना, गुरु के न अति निकट और न अति दूर बैठना चाहिए। गुरु के एकदम सामने या पीछे बैठने का भी निषेध किया गया है, क्योंकि उससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है। गुरु के सम्मुख एकदम निकट बैठने से अविनय भी होता है और गुरु को वंदना करने वालों को व्याघात होता है। गुरु के पीछे बैठने से गुरु के दर्शन नहीं होते और उनकी कृपापूर्ण दृष्टि शिष्य पर नहीं पडती। दशवैकालिक सूत्र में ही आगे कहा गया है कि गुरु के बिना पूछे नहीं बोलना चाहिए और गुरु यदि बात कर रहे हों तो बीच में नहीं बोलना चाहिए। गुरु के समक्ष चुगली अथवा कपटपूर्ण बातें नहीं करनी चाहिए।

गुरु के प्रति अविनय अथवा अवज्ञा के संबंध में कहा गया है कि-

थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे ।
सो चेव उ तस्स अभूइभावो फलं व कीयस्स वहाय होइ ।।
जे यावि मंदेत्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे+ अप्पसुए त्ति नच्चा ।
हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा करेंति आसायण ते गुरुणं ।।
पगईए मंदा वि भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया ।
आयारमंता गुणसुट्ठियप्पा जे हीलियासिहिरिव भास कुज्जा ।।
जे यादि नागं डहरेत्र त्ति नच्चा आसायए से अहियाय होइ ।
एवाऽऽयरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ।।
आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो किं जीवनासाओ परं नु कुज्जा?
आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहि-आसायण नत्थि मोक्खो ।।
जो पावगं जलियमवक्कमेज्जा आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा ।
जो वा विसं खाइय जीवियट्ठी एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ।।
सिया हु से पावय नो डहेज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे ।
सिया विसं हालहलं न मारे, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।।
जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा ।
जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ।।
सिया हु सीसेण गिरिं पि भिंदे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे ।
सिया न भिंदेज्ज व सत्तिअग्गं, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।।
आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहि-आसायण नत्थि मोक्खो ।
तम्हा अणाबाह-सुहाभिकंखी गुरुप्पसायाभिमुहो रमेज्जा ।।

ऐसे सद्गुरु किसी को श्राप नहीं देते, किन्तु उनके अविनय और उन्हें किसी भी प्रकार से ठेस पहुंचाने पर शिष्य के कर्मों का ऐसे बंध हो जाता है कि उसकी दुर्गति स्वाभाविक हो जाती है। दशवैकालिक सूत्र की उपर्युक्त गाथाओं में कहा है कि जो शिष्य गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के प्रति विनय नहीं रखता, उसका अहंकार उसके विनाश का कारण बनता है। जो शिष्य गुरु की ये मंदबुद्धि हैं, ये अल्पवयस्क हैं तथा अल्पश्रुत हैं, ऐसा कहकर गुरुओं की आशातना करता है, वह मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। गुरु चाहे मंद हो या प्राज्ञ अवज्ञा किए जाने पर शिष्य की गुणराशि उसी प्रकार भस्म हो जाती है, जिस प्रकार ईंधन अग्नि से भस्म हो जाता है। गुरु की अवहेलना करने वाले शिष्य संसार में बार-बार जन्म-मरण करते हैं। कदाचित अग्नि आफ पैर न जलाए, सांप आपको न डस सके, बहुत तगडा जहर भी कदाचित आपको न मार सके, लेकिन गुरु की आशातना के अशुभ फल से आपको छुटकारा नहीं मिल सकता।

गुरु की आशातना करना पर्वत से अपना सिर टकराना है। सोए हुए सिंह को छेडकर जगाना या भाले की नोंक पर हथेली से प्रहार करने जैसा है। पर्वत से टकराने वाले का सिर चकनाचूर हो जाता है, सिंह को जगाने वाला स्वयं कालकवलित हो जाता है और भाले की नोंक पर प्रहार करने वाले के अपने हाथ-पैर से रक्तधारा बहने लगती है। इसी प्रकार गुरु की आशातना करने वाला अविवेकी अपना ही अहित करता है। इहलोक-परलोक दोनों में ही दुःख पाता है।

प्रायः देखने में आता है कि समाज में गुटबाजी या अपने नाम अथवा तुच्छ स्वार्थों के लिए कई तथाकथित शिष्य (श्रावक-श्राविका) साधुओं (गुरुओं) की अज्ञानतावश उपेक्षा करते हैं, उनके बारे में मिथ्या प्रचार करते हैं, लोगों को गुमराह करने का काम करते हैं, समाज में विघटन अथवा अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश में गुरुओं का अपमान तक कर डालते हैं अथवा उनके प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं करते हैं। ऐसे लोगों को गुरु का महत्त्व समझना चाहिए। आदिशंकराचार्य ने अपने एक श्लोक में गुरु की महत्ता के बारे में कहा है-

शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धन मेरुतुल्यम् ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।

यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो, सत्कीर्ति का चारों दिशाओं में विस्तार हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किन्तु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन न लगे तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ? गुरु के बिना जीवन अधूरा है।

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