‘यहां
से जाना है, और कहीं उत्पन्न भी होना है, तो यहां से नरकादि में चला जाऊंगा तो मेरा
क्या होगा ? ऐसी चिन्ता जिसको होती है, वह पाप करते हुए भी रोता है। पाप करने से
डरता है। आप विचार करें तो आपको भी प्रतीत हो कि ‘इन सबके पीछे मैं
दौडधूप करता हूं,
परन्तु यह सब यहीं रहने वाला है, जाना
मुझे है और मैंने जो कुछ किया, उसका फल भी मुझे ही भोगना पडेगा! मैं पाप
के उदय से बीमार पडूं तो मेरा लडका अधिक से अधिक दवा आदि दे देगा, सेवा
कर देगा, हाथ-पांव दबा देगा,
सेक कर देगा, परन्तु क्या वह मेरी पीडा ले
सकेगा? सगे-संबंधी बहुत प्रेमी होंगे तो पास में बैठकर रो लेंगे, परन्तु
मेरी पीडा तो मुझे ही भोगनी पडेगी।’ उस समय यदि आप झुरते भी हों, कराहते
हों और लडके से देखा न जाता हो तो भी वह क्या कर सकता है? आप
थाली पर जीमने बैठते हैं तो अधिक न खाने की सावधानी आपको ही रखनी पडती है न? अधिक
खा ले, बीमार पडे और फिर कहे कि परोसने वाले ने ऐसा किया, तो
क्या यह चल सकता है?
पेट दुःखे, दस्त लगे तो परेशानी आपको या परोसने वाले
को? इसी तरह सम्बंधी संसार में लुभाने का यत्न करते हों तो भी सावधानी किसको रखनी
है? -सूरिरामचन्द्र
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