सहनशीलता तो तभी प्रकट करनी चाहिए, जब खुद के ऊपर मुसीबतों का पहाड
टूट पडा हो। जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों,
विरोधी लोग देव-गुरु-धर्म की
खुलेआम निंदा कर रहे हों, उन पर चोट पहुंचा रहे हों या फिर अन्याय-अनीति से धर्म की हानि
हो रही हो, अहिंसा
को जड-मूल से उखाडने की बातें चल रही हो, और ऐसे संकट की घडी में कोई सहनशील बनने की सलाह दे
तो ऐसी सलाह कभी भी बर्दाश्त करने योग्य नहीं है। ऐसे प्रसंगों पर ‘सहनशीलता’
धारण करने वाला ‘सहनशील’
नहीं है,
अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत
अभिप्राय है।
अपने फर्ज से आँखें मूंदने के लिए ऐसी सहनशीलता का
सहारा कभी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके विपरीत ऐसी सहनशीलता का उपदेश देने वाले
धिक्कारने योग्य हैं और समाज को भी सावधान होकर ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा लुट जाएंगे। जब धर्म के ऊपर
संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो,
अन्याय हो;
तब उसका प्रतिकार न करना, अनीति के खिलाफ खडे न होना, मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर
ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने
सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतीकार के
लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति
के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है।-सूरिरामचन्द्र
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