गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

यह कैसी दासता है?


दान यदि धर्म है तो धन अधर्म है; शील यदि धर्म है तो भोग अधर्म है; तप धर्म है तो आहार अधर्म है और भाव यदि धर्म है तो दुर्भाव अधर्म है। ये समस्त बातें स्वतः ही निश्चित हो जाती हैं। इसी प्रकार यह भी सिद्ध हो जाता है कि यदि मोक्ष धर्म है तो समस्त संसार अधर्म है। संसार और संसार चलाने के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं को मैं अधर्म में डालना चाहता हूं और संसार से पार जाने के लिए उपयोगी सभी वस्तुओं को मैं धर्म में स्थान देना चाहता हूं। यदि आपके हृदय में यह बात उचित प्रकार से बैठ जाए तो धर्म, धर्म के रूप में हो सकता है।

जब तक दान धर्म और धन अधर्म न लगे, तब तक धन से मोह हटने की, मूर्च्छा उतरने की बात करना मिथ्या है। पच्चीस हजार रुपयों से बोली लगाने का निश्चय कर के सभा में आकर आप केवल पांच सौ रुपयों से बोली लगाना प्रारम्भ करो और यदि दो हजार रुपयों की बोली पर ही आपको आदेश प्राप्त हो जाए; और फिर आप तेईस हजार रुपयों के बचने का आनंद अनुभव करो तो कैसे चलेगा? जो व्यक्ति मूर्च्छा के मूर्तिमान अवतार हैं, वे ही ऐसा मिथ्या संतोष प्राप्त कर सकते हैं। आज आप में से अनेक सज्जन बाजार में तो धनी लगते हैं और मन्दिर-उपाश्रय में निर्धन लगते हैं। ऐसे लोग बाजार में उद्यमी दिखाई देते हैं और धर्म स्थानों में आलसी दिखाई देते हैं। वे बाजार में स्फूर्ति के साथ दौडधूप करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं और धर्म स्थानों में बीमार जैसे दीखते हैं। उन्हें यह संसार अधर्म स्वरूप नहीं लगा, उसका ही यह परिणाम है।

संसार के अठारहों पाप आपके सेवक बन सकते हैं और आप उन पर स्वामित्व का रोब जमा सकते हैं, तो भी ये सेवक आज आपके सेठ बने बैठे हैं। बात-बात में ये आपको आज्ञा दे रहे हैं और आप उनकी आज्ञा पर नाच रहे हैं। इतनी भारी दासता के बावजूद आपको इसका पश्चात्ताप भी नहीं हो रहा है। यह कम दुःख की बात नहीं है। आज धर्म और अधर्म की व्याख्या को गहराई से समझने की आप लोगों के पास फुर्सत ही नहीं है तो फिर आपका उद्धार कैसे संभव है? अधर्म की यह कैसी दासता है कि आप जानते हुए भी उसे छोडने के लिए तत्पर नहीं दिखाई देते? धन अधर्म है, अतः जिसके पास अधिक धन है, उसके पास उतना ही अधिक अधर्म है। हमारी इस प्रकार की बातें यदि धनी लोगों के गले उतर जाएं तो जैन शासन की विजय का डंका बज सकता है। बुरी वस्तु को जो बुरी मानता है, वही बुरी से उत्तम कार्य सम्पादित कर सकता है; तो भी कहीं उससे बुरा’ ‘अच्छानहीं हो जाता। बुरे को तो बुरा ही कहना पडेगा। दान की तरह दान करने वालों का आज अभाव है; इसलिए आप जैसे महानुभावों के नाम आज तख्ती पर लिखे जाते हैं। यहां ऊसर (बंजर) गांव में एरंडिया प्रधानहोने की उक्ति चरितार्थ होती है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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