शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

जैनत्व को लज्जित करने वाला अज्ञान


जिन तारणहारों के हम अनुयायी हैं, क्या उनके समान बनने की हमारे अन्तःकरण में अभिलाषा है? हम जिनका अनुकरण करते हैं, उनके समान बनने की हृदय में तमन्ना तो होती है न? इसलिए वे ऐसे महान कैसे बन सके, यह ज्ञात करने का प्रयत्न भी स्वाभाविक रूप से हम करते हैं, करते हैं न? हमें असीम पुण्योदय से आर्य संस्कृति और जैन कुल मिला है, तो भगवान श्री जिनेश्वर देवों के चरित्रों से सम्पूर्णतया परिचित होना ही चाहिए। हम इस अवसर्पिणी काल में हुए भगवान श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों के चारित्रों से परिचित तो होंगे ही और विशेषकर वर्तमान शासन के संस्थापक भगवान श्री महावीर परमात्मा के चरित्र से तो हम सुपरिचित ही हैं न? ऐसे सवालों के समय यदि आप मौन की स्थिति में रहते हैं तो क्या यह स्थिति श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायियों के लिए शोभनीय है? हमारा यह अज्ञान जैनत्व को लज्जित करने वाला नहीं है?

स्वयं का श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायी के रूप में परिचय देने वालों को उनके चरित्रों का ज्ञान भी न हो तो यह लज्जा की बात तो है ही। जैनसे तात्पर्य ही यही है कि श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायी। चाहे जैन कुल में उत्पन्न होने के कारण ही आप जैन कहलाते हों, पर जैन कहलाना तो आपको अच्छा लगता है न? भगवान श्री जिनेश्वर देवों के सच्चे अनुयायी होने में सहायक होने वाली जो सामग्री आपको अपने पुण्योदय से प्राप्त हुई है, उसका आपके अन्तःकरण में हर्ष है क्या? क्या आप इस प्राप्त सामग्री के योग को सफल करना चाहते हैं? अथवा आपका अन्तःकरण विषय-जनित एवं कषाय-जनित सुख की सामग्री को ही प्राप्त करने और उसकी सुरक्षा करने में ही तल्लीन है? जैन कहलाने वालों में तो आज ऐसे महानुभाव अनेक हैं। इस कारण से जैन शासन की जो समृद्धि होनी चाहिए, वह आज दृष्टिगोचर नहीं होती।

भगवान श्री जिनेश्वर देवों के अनुयायियों में जो गुण होने चाहिए, वे गुण यदि अधिकतर जैनों में विद्यमान हों, यदि श्री चतुर्विध संघ में वे गुण सम्पूर्णतया विकसित रूप से विद्यमान हों, तो-तो श्री जैन शासन जाज्वल्यमान लगे बिना रहेगा ही नहीं। उन गुणों को स्वयं में लाने के लिए भगवान के चरित्रों का सुन्दर प्रकार से अध्ययन करना आवश्यक है। भगवान के चरित्रों का अध्ययन करने से भगवान के प्रति हमारे हृदय में सम्मान बढता ही जाता है और सम्मान बढने से सम्यग्दर्शन आदि गुणों का हम में प्रवेश होता चला जाता है, वे गुण निर्मल भी होते जाते हैं, जिससे भगवान की आज्ञा का स्वरूप जानने व उसका अनुकरण करने की उत्कट अभिलाषा जागृत होती है। इससे हमारे दोष नष्ट होते हैं, कर्मों का क्षय होता है और हम आत्म-कल्याण की दिशा में अग्रसर होकर अक्षय सुख-शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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