सभी अवस्थाओं में युवावस्था अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। प्रायः इसके सदुपयोग
और दुरुपयोग पर जीवन की सार्थकता अथवा निरर्थकता निर्भर करती है। आत्मा यदि सोच ले
तो यह एक ऐसी अवस्था है, जिसमें मन वांछित कार्य सिद्ध
किए जा सकते हैं। इस अवस्था में आत्मा यदि सन्मार्ग की ओर उन्मुख हो जाए तो वह
विशिष्ट प्रकार की साधना करने में सक्षम होती है। इसी तरह यह अवस्था अत्यंत भयंकर, खतरनाक भी सिद्ध हो सकती है, क्योंकि यौवन के उन्माद में चढी
आत्मा अपने सम्पूर्ण जीवन का सौन्दर्य नष्ट कर देती है और उसका भविष्य भी अनेक
विपत्तियों से घिर जाता है। युवावस्था से यदि अधिक लाभ उठाना हो तो इस अवस्था को
उचित दिशा दिए बिना चलेगा ही नहीं, क्योंकि उचित दिशा की ओर प्रवृत्त युवावस्था जितनी उपयोगी और लाभदायक सिद्ध हो
सकती है, उतनी ही अनुचित दिशा की ओर
प्रवृत्त होने पर अनुपयोगी एवं भयंकर सिद्ध होगी।
जिस मनुष्य ने अपनी युवावस्था किसी प्रकार के अपवाद, दोष अथवा उद्दण्डता के बिना व्यतीत कर ली, उसके समान पुण्यशाली आत्मा मिलना दुर्लभ है। मानव-जन्म का जो फल प्राप्त करना
था, समझ लीजिए उस मनुष्य ने प्राप्त कर लिया, जिसने अपनी युवावस्था बिना अपवाद के व्यतीत कर ली। इस बात पर श्रद्धा रखने
वालों के लिए विचारणीय है कि ‘युवावस्था में कौनसी क्रियाएं
करें तो अपवाद मानी जाएं और कौनसी क्रियाएं करने पर अपवाद से बचा जा सके?’ युवावस्था में मन और इन्द्रियां मजबूत होती हैं। बाल्यकाल विषय-वासनाओं के
योग्य नहीं होता और वृद्धावस्था शिथिल होती है। जीवन की सफलता-असफलता का आधार
युवावस्था में तीव्र इन्द्रियों का सदुपयोग और दुरुपयोग है। यदि इन इन्द्रियों के
आधीन हो जाएं तो कदम-कदम पर अपवाद आने में विलम्ब नहीं होगा। संसार में ऐसा कौनसा
पाप है जो इन्द्रियों के आधीन हुई आत्मा न करे? संसार में ऐसा कौनसा बुरा कार्य है जो इन इन्द्रियों के वशीभूत मनुष्य नहीं कर
बैठे? उस समय जो आत्मा इन्द्रियों के आधीन न हो, इन्द्रियों की विषय-लोलुपता से बच जाए, वह सचमुच बचा हुआ समझा जाएगा।
युवावस्था भयानक भी है और यदि इसका उपयोग उचित ढंग से किया जाए तो सुन्दर भी
है। इन्द्रियों में जो शक्ति युवावस्था में होती है, वह किसी भी अन्य अवस्था में नहीं होती। इसलिए ज्ञानी भी लिख गए हैं कि ‘यदि युवावस्था में सावधानी से जीवन यापन न हो तो योगियों के मन भी विकार-वश
हुए बिना नहीं रहते। यौवन अच्छे-अच्छों को उलझा देता है, जो न उलझे वो महात्मा है। ऐसा विकारों के वश में नहीं होने वाला युवक ही जीवन
का सर्वाधिक सफल उपयोग कर सकता है। उसी युवक की वृद्धावस्था शान्त, स्थिर और सदाचार युक्त बन सकती है। और वही संसार में सद्विचारों का प्रसार कर
सकता है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें