शनिवार, 22 अगस्त 2015

तृष्णा ने जन्म दिया अनीति को


इच्छाओं का कोई अन्त नहीं, एक पूरी हो तो दूसरी जन्म लेती है। इच्छा, कामना, लालसा, महत्त्वाकांक्षा; यह सब तृष्णा के ही पर्यायवाची हैं, यही इन्द्रियों की गुलामी है और यही भौतिकता की चकाचौंध में भटकाती है। यही लोभ और लालच का स्वरूप है और यही अनीति को जन्म देता है। एक के दो करें तो व्यापार माना जाता है, पर क्या यह अनीति नहीं है? सट्टा कैसे चल पडा? जुए जैसा धंधा भी कैसे चला? जेब में पांच रुपये हैं और पांच सौ का सट्टा करते हैं। ये कैसे बढा? लालच और तृष्णा ने ही इसे बढाया है न? ऐसा सट्टा करने वाला फिर रात को चौंकता है, अर्द्धनिंद्रा में बडबडाता है, तेजी-मंदी के सपने देखता है। हर समय उसके मस्तिष्क में क्या भाव रहा, यही धुन रहती है। भावों का घटना-बढना भी पंजाब मेल की तरह होता है। घडी में इधर तो घडी में उधर। ऐसे घटने-बढने के समय मनुष्य पागल सा हो जाता है। जब उसे पूछते हैं कि अरे! घडी भर में क्या हो गया?’ तो वह तो सीधा उत्तर देने योग्य भी नहीं रहता।

आज के व्यापार भी भिन्न प्रकार के हैं। आठ दिन पूर्व जो लखपति था, आज उसकी नैया डोलती है। उसकी नाव सागर की भयंकर लहरों के मध्य गोते खाती है। भाग्य ठीक हुआ तो बचेगी, अन्यथा कालीधार डूबेगी। यह कैसी दशा है? ऐसा जीवन क्यों? चार रोटी कमाना और चार खाना, उसमें कष्ट क्या? ये सट्टे और जुए वाले ज्योतिषियों के चक्कर में रहते हैं। उन्हें वे पैसे देते हैं और तेजी-मंदी पूछते हैं। कुछ ज्योतिषी भी चतुर होते हैं। उनके पास दो सौ जुआरी और सटोरिए आते हैं, उनमें से सौ को तेजी बता देंगे और सौ को मंदी। इस तरह सौ तो उन्हें चमत्कारी ही कहेंगे न? ठगाया हुआ बनिया तो इधर-उधर बात भी नहीं करता और जीता हुआ चमत्कार का ढिंढोरा पीटता है तो ज्योतिषी की दुकान भी चलपडती है।

वर्तमान शिक्षा, विध्या, विकास और सुधारों का परिणाम देखा? पहले छोटे झूठ को भी झूठ मानकर उसका तिरस्कार होता था, जबकि आज तो झूठ और अनीति का पार नहीं है। इसलिए जुए-सट्टे को भी व्यापार माना जा रहा है। आज जुए को भी कोई जुआ नहीं कहता, क्योंकि सब कर रहे हैं। आज तो गद्दी वाले, तिजोरी वाले और जेब खाली वाले सभी यही धंधा करते हैं, उन्हें जुआरी कहो तो मारने आएंगे। सट्टा व्यापार की श्रेणी में कैसे आ गया? खराब वस्तु अच्छी की गिनती में कैसे आ गई? इसलिए कि अज्ञान बढ गया और इच्छाओं का पार नहीं रहा। अनेक महापुरुष संसार की शानोशौकत, राज्य, परिवार आदि छोडकर क्यों चल दिए? दृढ मनोबल वाले भी ऋद्धि-सिद्धि त्याग कर अकेले क्यों निकल पडे? इन सबके विषय में तनिक सोचो तो जीवन में शान्ति आ सकती है। इच्छा और तृष्णा पर नियंत्रण रखिए। यदि ऐसा नहीं करोगे तो शास्त्र कहते हैं कि मरते समय भी शान्ति नहीं मिलेगी। -सूरिरामचन्द्र

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