बुधवार, 26 अगस्त 2015

मैत्री भाव अपनाओ



शान्ति के लिए संसार के समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री रखने हेतु उपकारी महर्षियों ने फरमाया है। किसी के प्रति शत्रुता का भाव नहीं होना चाहिए। यह प्रथम चरण है, प्रथम सोपान है। इस सोपान, इस सीढी पर पांव नहीं रखोगे तो ऊपर नहीं चढ सकोगे। इसके बिना चाहे जितने बाह्य रूप से आगे बढ गए तो भी गिरकर मर जाओगे, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। अंधा यदि दौडता चला जाएगा तो सिर ही फूटेगा। मैत्री-भाव बिना, विश्व के प्राणीमात्र के कल्याण की भावना के बिना, सभी पर-हित में रत रहें यह भावना, संसार के दोषों के विनाश की भावना और समस्त लोक सुखी हो यह भावना नहीं आएगी।

इन भावनाओं के अभाव में आपको यदि बडप्पन मिल गया तो उसका परिणाम तो भयंकर ही होगा। झूठी शान में बढे हुए राष्ट्र की ओर दृष्टि तो डालिए। कुत्ता भौंका अतः हमारी नींद में खलल हुई। इसे गोली से मार दो, यही परिणाम होगा कि अन्य? अत्यन्त वैभव प्राप्त हो जाए, परन्तु मैत्री-भाव नहीं हो तो परिणाम में अनिष्ट होगा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

नदी बह रही है। पानी के प्रवाह को रोको तो खेत हरा-भरा हो जाएगा, अन्यथा बढता हुआ प्रवाह पहाडों को भेद डालता है, तबाही मचा देता है। अनेक गांव चपेट में आकर बह जाते हैं। पानी तो वही है, कोई दूसरा नहीं आया। एक मनुष्य को बचाने के लिए कई प्राणी मारें तो क्या हुआ?’ यह कौनसी भावना है? प्रयोग स्वरूप चार-पांच जीव मारें तो क्या हानि है? यह कौनसी भावना?

स्वयं पर प्रयोग करें तो? एक मनुष्य के उत्सर्ग से हजारों बचते हों तो भी कोई यह प्रयोग करता है? वहां तो पीछे हटेंगे। तो फिर जीवों को मारने का आपको क्या अधिकार? जब तक मैत्री-भावना नहीं आएगी, तब तक सच्चा मनुष्यत्व नहीं आएगा। अपनी संतान को तो पशु भी खिलाता-पिलाता और सम्भालता है। पशुओं को मुक्त छोड दीजिए, परन्तु वे अपने आप शाम को घर आ जाएंगे, जो खिलाओगे वही खाएंगे और स्वयं हमें जो देते हैं वही देंगे। मनुष्य के रूप में आप में क्या अधिकता है, बताइए? मनुष्य के रूप में आप में जो अधिकता होनी चाहिए, वह प्राप्त करने के लिए ज्ञानियों की हित-शिक्षा के अनुसार जगत के प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव रखो। यह मत भूलो कि मैत्री का अर्थ है पर-हित-चिन्ता।

शत्रु के, गालियां देने वाले के लिए भी हम अनिष्ट की इच्छा नहीं कर सकते। शत्रु के अनिष्ट की इच्छा करने से लाभ भी क्या होगा? केवल अशुभ विचारों के योग से आत्मा की मलिनता और परिणाम स्वरूप स्वयं का नाश, यही होगा न? इसीलिए किसी के प्रति भी वैर भावना का त्याग करते हुए शान्ति के चाहक को ऐसे विचारों से बचकर मैत्री भाव अपनाना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

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