रविवार, 30 अगस्त 2015

रोग भी धनी लोगों के यहीं डेरा जमाते हैं


धन के वशीभूत धनी मनुष्यों पर व्याधियों की दृष्टि भी ठिठक जाती है। जो धनी लोग कृपण होते हैं, वे इस तरह का भोजन करते हैं कि उनके लिए कहना पडता है कि वे भूखों मरते हैं। जो धनी लोग विलासी होते हैं, ‘वे ऐसा भोजन करते हैं कि वे रोगों को निमंत्रण देते हैं’, यह कहना पडता है। कृपण लोग खुद खाते भी नहीं और किसी को खाने भी नहीं देते, खिलाते भी नहीं। विलासी लोग अपथ्य खाद्य पदार्थों को खा-खाकर व्याधियों से ग्रस्त होते हैं। अतः धनी मनुष्य का भोजन प्रायः तुच्छ एवं अपथ्य कहलाता है। रसना के स्वाद के अधीन होकर भी तुच्छ एवं अपथ्य भोजन किया जाता है और कृपण मनुष्य कृपणता के कारण तुच्छ और अपथ्य भोजन करता है।

खान-पान के संबंध में धनी और निर्धनों के दृष्टिकोण में अन्तर होता है, यह आपको ज्ञात है क्या? निर्धन क्यों खाते हैं? वे अपनी क्षुधा शान्त करने के लिए खाते हैं और क्षुधा की ज्वाला शान्त करने के लिए निर्धन किस तरह का भोजन पसंद करते हैं? वे ऐसा भोजन पसंद करते हैं, जिससे क्षुधा की ज्वाला शान्त हो सके और शरीर बलवान हो सके। उनमें से भी जो निर्धन मनुष्य संतोषी स्वभाव के होते हैं, उनकी तो बात ही भिन्न है। वे लोग न तो अजगर की तरह खाते हैं और न वे अपथ्य पदार्थ ही खाते हैं। लक्ष्मी के दास अविवेकी धनी लोग जीभ के स्वाद को संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाते हैं।

धनी लोग जब तक क्षुधा लगे तब तक तो रुकते ही नहीं। यद्यपि वर्तमान समय में तो निर्धन और मध्यम वर्ग के मनुष्यों में भी खान-पान संबंधी अनेक बुराइयां उत्पन्न हो गई हैं, जिनके फलस्वरूप वे भी व्याधिग्रस्त होकर पीड़ित रहते हैं; परन्तु निर्धन संतोषी मनुष्य प्रायः ऐसा भोजन करते हैं, जिससे उनका शरीर रोग-ग्रस्त न होकर उलटा हृष्ट-पुष्ट हो। धनी लोग ऐसा नहीं करते। रोग उन धनी लोगों की अभिलाषा करते हैं। कैसी विडम्बना है कि याचकगण तो धनी लोगों की अभिलाषा करते ही हैं, रोग भी उनकी अभिलाषा करते हैं, क्योंकि रोगों का स्थान ही वहां है। ऐसे मनुष्य इस भव में सुख से जीवन जी नहीं सकते, मृत्यु के समय वे शान्ति पूर्वक मर भी नहीं सकते और मृत्यु के उपरांत उन्हें सद्गति भी प्राप्त नहीं हो सकती।

धनी लोग धन के वशीभूत होकर अनेक प्रकार की विपत्तियों से घिरे रहते हैं। वे एक कदम भी निश्चिंत होकर परिभ्रमण नहीं कर सकते। कई प्रकार के भय से वे ग्रस्त रहते हैं। शास्त्रों में धन की तीन गतियां बताई गई है- दान, भोग और नाश। जो धनी, धन की मूर्च्छा से रहित होकर विवेक पूर्वक धन का दान नहीं करता, अपने धन का संयमित उपभोग करते हुए, अन्य को इससे लाभान्वित नहीं करता, धर्म और परोपकार में इसका निवेश नहीं करता, उसके धन और आत्मा का भी नाश होता है।-सूरिरामचन्द्र

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