रविवार, 23 अगस्त 2015

अशान्ति क्यों?


संसार आपसे नहीं छूटता, सर्वस्व का त्याग आपसे नहीं होगा, यह आप कहते हैं तो मान लेता हूं; परन्तु जीवन में जीवित रहने जितना त्याग तो होना चाहिए न? क्या यह मानव-जीवन तूफान उठाने के लिए है? आप मानव-जीवन को ऊंचा कहते हैं तो यह जीवन ऊंचा क्यों मानते हैं? जीवन का ध्येय तो निश्चित करना ही चाहिए न? आहार, नींद, भय और मैथुन की क्रियाओं में तो आप पशु की कोटि से भी निम्न कोटि में जाने योग्य बन गए हैं, ऐसा क्यों? अर्थ-काम बहुमूल्य है या कि जीवन बहुमूल्य है? जो मनुष्य जीवन को बहुमूल्य मानते हैं, उन्हें अर्थ-काम के लिए समय मिले और मोक्ष-प्राप्ति के लिए धर्माराधना का समय न मिले, यह क्या बात है? बात यही है कि बुरी इच्छाओं की दासता है। छीना-झपटी की वृत्ति अथवा अधिकार के लिए मारामारी में शान्ति मिलेगी क्या?

सचमुच, जिस तरह लालसा के पीछे भागने वाला मनुष्य सुख से नहीं जी सकता, उसी तरह वह सुख से मर भी नहीं सकता। लालसा से घिरे हुए परिवार में लालसा से दुःखी धनवान का जीवन जिस तरह भयानक रीति से व्यतीत होता है, उसी तरह उसकी मृत्यु भी प्रायः भयानक रीति से ही होती है। उस समय तो परिवार के सब लोग वसीयतनामा बनवाने के लिए एकत्रित हो जाते हैं। कोई तिजोरी को ताला लगाता है तो कोई भीतर के कमरे को ताला लगाता है। कोई जो हाथ में आए उसे छिपाने में रहता है। उस बिचारे मृत्यु-शैया पर पडे अंतिम सांसें लेते धनवान की चाकरी तो केवल दो नौकर-चाकर ही प्रायः करते हैं। परिवार के सदस्य तो सब दूसरे गुप्त कामों में लग जाते हैं।

आज लालसा से पीड़ित मनुष्यों के पास लक्ष्मी आ जाने से उनकी दूसरी भी भयंकर दशा होती है। उनके दो के स्थान पर चार आँखें हो जाती हैं। उनके पांव जमीन पर नहीं पडते, वे अधर चलते हैं। वे न तो खाना जानते हैं और न पीना, बोलना और जीना जानते हैं, क्योंकि लालसा की अधिकता से लक्ष्मी के स्वामी मिटकर वे उसके गुलाम बन जाते हैं। गुलाम बनने में कोई महत्त्व नहीं है। महत्ता तो भाग्य से यदि लक्ष्मी प्राप्त हो जाए तो उसका स्वामी बनने में है।

पौद्गलिक इच्छाओं के कारण ज्यों-ज्यों दिन व्यतीत होते हैं, त्यों-त्यों जीवन नष्ट होता जाता है, इस पर जरा सोचिए। घर, परिवार, धन, बंगला, बगीचा, इन्द्रियां और मन; ये सब आपके हैं या आप उनके? कभी सोचा है आपने? आज तो लक्ष्मी प्राप्त हो रही है, अतः क्यों न दो बंगले बनालूं? दिन में आठ-दस बार चाय, पान, सिगरेट और न जाने क्या-क्या? नाटक-सिनेमा, मौज-शौक! ऐसी इच्छाएं जागृत होती ही रहती है और इस प्रकार इन्द्रियों-इच्छाओं की दासता बढती ही जाती है; इसी में जन्म होता है अशान्ति का! इसीलिए आज सर्वत्र अशान्ति का दावानल जल रहा है।-सूरिरामचन्द्र

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