सोमवार, 17 अगस्त 2015

न्यायपालिका धर्म पर हमला करने से बचे !




संविधान और लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का गुरुतर दायित्व हमारी न्यायपालिका पर है, किन्तु कभी-कभी ऐसा लगता है कि न्यायपालिका स्वयं ही संविधान या मौलिक अधिकारों का हनन करने पर उतारू हो जाती है, इसका एक बडा कारण आधुनिकता का आवेग है, वहीं कई बार अन्य मामलों के कारण उसका एक जनरल माइंडसेट बन जाता है, जिसके कारण वह निर्दोषों को भी अपने पूर्व के अनुभवों के आधार पर या वातावरण से प्रभावित होकर दोषी मान लेती है। कभी-कभी एक व्यक्ति की शिकायत के गुण-दोषों का विश्लेषण किए बिना और धर्म व धार्मिक परम्पराओं के विशेषज्ञों से चर्चा किए बिना पूरे ही धर्म पर आक्षेपात्मक टिप्पणियां कर धर्म पर ही हमला कर बैठती है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता, यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के विपरीत होने के साथ-साथ संविधान का भी अतिचार है, वहीं इस प्रकार पूरे धर्म व समाज की हजारों हजार वर्ष पुरातन मौलिक मान्यताओं-परम्पराओं और आत्म-कल्याण की ऐसी साधना जिससे किसी अन्य को कष्ट नहीं पहुंचता या किसी के अधिकारों का हनन नहीं होता अथवा जिससे मानवीय गरिमाओं का भंग नहीं होता, बल्कि जीव मात्र को त्राण देने वाली अहिंसा का ही परचम लहराता है; उसे आघात पहुंचाकर समाज में रोष, दुःख व क्लेश पहुंचाकर न्याय-व्यवस्था को ही कठघरे में खडा कर देना उचित नहीं है।

अभी-अभी ऐसे ही दो मामले लगातार हो गए हैं। पहला गुजरात उच्च न्यायालय में 8 मई, 2015 को बालदीक्षा को लेकर न्यायालय द्वारा बालदीक्षा को क्रूरता और बर्बरता की संज्ञा देकर की गई टिप्पणियों से बना है, जबकि न्यायालय के समक्ष एक भी ऐसा मामला विचाराधीन नहीं था कि जिस बालदीक्षा में किसी प्रकार की क्रूरता हुई हो; वहीं दूसरा मामला हाल ही में संथारा-संलेखना को सतीप्रथा व आत्महत्या मानकर राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर पीठ द्वारा इसे अपराध मानकर 10 अगस्त, 2015 को दिए गए फैसले से बना है।

दोनों ही मामले ऐसे हैं जो बेहद संवेदनशील और गहरी धार्मिक आस्था से जुडे हैं या यों कह दें कि दोनों ही मामले जैनधर्म के प्राणतत्त्व हैं। ऐसे में न्यायालय चाहता तो वह अपने अधिकारों का उपयोग कर विभिन्न धर्माचार्यों और कानूनविदों, पूर्व न्यायाधीशों आदि की राय मांग सकता था, क्योंकि ये दोनों ही आत्मकल्याण की क्रियाएं हजारों हजार वर्षों से चल रही है, जबकि जैनधर्म जैसी सूक्ष्म अहिंसा का पालन कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। जहां एक सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव को भी कष्ट पहुंचाने का निषेध है, वहां इन परम्पराओं-मान्यताओं को हिंसक गतिविधियों से जोडना अपने आप में बहुत दुःखदायी है और पूरे समाज व धार्मिक अनुयायियों का उद्वेलन स्वाभाविक है।

ऐसे में न्यायपालिका के विरूद्ध एक नकारात्मक माहौल बनता है कि न्यायपालिका एक समुदाय विशेष की धर्म के नाम पर चलने वाली अनुचित लगनेवाली परम्पराओं के विरूद्ध नहीं बोल पाता, वहीं हमारे साथ वह अन्याय करने पर आमादा है। इस प्रकार के भेदभाव के आरोप भी न्यायपालिका के विरूद्ध लगते हैं, जो किसी प्रकार न्याय के हित में नहीं हैं। लेकिन इसकी जवाबदारी न्यायपालिका को ही उठानी होगी।

एक और गलती तब हो जाती है जब तथाकथित ढोंगी बाबाओं या व्यभिचार आदि के आरोपों में फंसे बाबाओं अथवा अनापशनाप धन-दौलत इकट्ठे करने वाले बाबाओं के केसेज को देखकर अन्य धर्माचार्यों को भी उसी श्रेणी में मान लिया जाता है, जबकि जैन धर्माचार्य या जैन साधु का किसी से न राग होता है और न ही द्वेष; न वे किसी पर अन्याय-अत्याचार करते हैं और न ही अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का स्वयं प्रतिकार करते हैं। वे विशुद्ध रूप से पूरी तरह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करते हैं और दूसरों को भी इनके पालन की ही प्रेरणा देते हैं। वे अपने पास एक भी पैसा या किसी प्रकार की धन-सम्पत्ति नहीं रखते और न ही किसी प्रकार के वाहन आदि का प्रयोग करते हैं। वे ग्रामानुग्राम पैदल-पैदल ही विचरण करते हैं। वे अपने पास किसी प्रकार की खाद्य वस्तु भी दूसरे दिन के लिए बचाकर नहीं रखते। घर-घर से थोडी-थोडी भिक्षा प्राप्त कर उतना ही भोजन लेते हैं, जितने से उस दिन का काम चल जाए, वह भी केवल एक घर से नहीं लेते, कई घरों से थोडा-थोडा लेते हैं, इसीलिए इस विधि को गोचरी कहा जाता है, जिस प्रकार चारागाह में गाय एक ही स्थान से घास नहीं चरती, उसी प्रकार जैन साधु एक ही स्थान से आहार नहीं लेता।

बाल, बीमार एवं वृद्ध साधुओं को छोड दें तो अधिकांश साधु एक समय ही आहार ग्रहण करते हैं, कई साधु-साध्वी तो आए दिन उपवास या अन्य कोई तप करते ही रहते हैं। उनका जीवन पूरी तरह त्यागमय होता है और सांसारिक प्रवृत्तियों से उनका कोई सरोकार नहीं होता है। वे सांसारिक प्रवृत्ति, व्यापार, विवाह का उपदेश भी नहीं देते। उन पर किसी प्रकार की विपत्ति आने पर समाज ही उसके लिए उत्तरदायी होता है। जैन साधु सांसारिक मायाचार, छल-कपट आदि से अपरिचित और कोसों दूर होते हैं, वे अत्यंत सरल, सहज, सहिष्णु होते हैं वे सांसारिक गतिविधियों में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से शामिल ही नहीं होते.

संस्कारित बच्चा आठ वर्ष या उससे आगे की किसी भी आयु में अपने पारिवारिक संस्कारों में अपने मनोभाव से, अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर दीक्षा लेता है और उसे आगे भी शिक्षा व संस्कारों का ऐसा ही वातावरण मिलता है कि वह अपने जीवन को उन्नत बना सके और मानवीय गरिमा व गौरव के अनुरूप जीवन जी सके तो आज की विध्वंसकारी वैश्विक परिस्थतियों में तो यह और भी महत्वपूर्ण व सम्मानजनक है और दुनिया के किसी भी न्यायालय को इसका समर्थन करना चाहिए. ऐसे हजारों उदाहरण हैं कि बचपन में संयम ग्रहण करने वाले बहुत ही महान आचार्य बने हैं और उन्होंने मानवता की सर्वोत्कृष्ट सेवा की है. बालदीक्षा क्या केवल जैनधर्म में ही होती है? बौद्धधर्म में भी होती है, जगतगुरु कहलानेवाले श्री शंकराचार्यजी के यहां भी होती है, अन्य कई मत-मतांतरों में होती है। यह आर्य संस्कृति है.

यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है कि आज तक जितने बडे-बडे महापुरुष, बडे-बडे आचार्य व बडे-बडे शास्त्रों के लेखक हुए हैं, उनमें बालदीक्षितों की संख्या ही ज्यादा है, चाहे वे कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य हों, श्री शंकराचार्य हों, संत ज्ञानेश्वर हों, ऐसे हजारों नामों की सूची हो सकती है। यानी जो बचपन में दीक्षा लेते हैं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, तप-तेज उच्च कोटि का होता है व उनमें पूर्व जन्म के ऐसे संस्कार और पुण्य होता है; फिर बालदीक्षा के नाम पर हायतौबा क्यों?

दूसरा, जो दीक्षा ले लेता है, किन्तु संयम नहीं पाल सकता, वह वापस परिवार में कभी भी लौट सकता है। दीक्षार्थी को वहां बंधक बनाकर नहीं रखा जाता।

जैन समाज में जितनी दीक्षाएं होती हैं, उनमें से 0.5 प्रतिशत भी बालदीक्षाएं नहीं होती। बडे होकर दीक्षित होनेवालों में से संयम नहीं पाल सकने और वापस संसार में लौटनेवालों की अपेक्षा बालदीक्षितों के वापस लौटने की संख्या अत्यंत नगण्य है। फिर क्यों इस पर गाज गिराई जाती है और इसके नाम पर व इसकी आड़ में समूचे जैन धर्म पर आक्रमण किया जाता है?

सिनेमा और टीवी सीरियल में बाल कलाकार के रूप में बच्चों को भेजना ठीक है? क्रिकेट के मैदान में बच्चों को हाथ-पांव तुडवाने के लिए भेजना ठीक है? इनमें जानेवाले बच्चों की सफलता दर कितने फीसदी है और फिर उन असफल बच्चों का क्या होता है? क्या इनमें बच्चों का सर्वांगीण विकास हो जाता है? इनकी तुलना में बालदीक्षित साधु यदि प्रकाण्ड विद्वान बनता है और स्व-पर कल्याण करता है तो कौनसा विकास ज्यादा अच्छा है? सर्वांगीण विकास का आपका पैमाना क्या है, क्या उस पर सवाल नहीं उठना चाहिए? क्या आज की आधुनिक शिक्षा बच्चों का सर्वांगीण विकास कर पा रही है या उससे निराश बच्चों में आत्महत्या का प्रतिशत बढ़ा है? जितने बच्चे आत्महत्या करते हैं उतने तो दीक्षा भी नहीं लेते.

लोगों को बालदीक्षा लेने वाले इक्का-दुक्का बच्चे तो नजर आ जाते हैं, जिनका पालन-पोषण बहुत ही उच्च तरीके से होता है, जिनका भविष्य बहुत ही संस्कारित, उज्ज्वल और गौरवशाली बनता है (जिसे क्रूरता की संज्ञा दी जा जाती है); लेकिन वे करोडों बच्चे क्यों नहीं दिखाई देते जो भूखमरी, कुपोषण, बाल एवं बंधुआ मजदूरी के शिकार होकर अपना दम तोड रहे हैं या आवारागर्दी व अपराध में संलग्न हो जाते हैं। दीक्षित बच्चों पर कोई दुराचार नहीं किया जाता, बल्कि दीक्षा के दिन से ही वे बडों के लिए भी पूजनीय और वंदनीय हो जाते हैं।

आज की औपचारिक शिक्षा, स्कूलों का वातावरण, टीवी चेनल्स पर प्रसारित होनेवाले दृश्य और सीरियल्स, पोर्न इंटरनेट और वातावरण बच्चे को क्या दे रहे हैं, क्या बना रहे हैं? देश में कितने प्रतिशत बच्चों को आज की आधुनिक शिक्षा वास्तव में इंसान बना पा रही है? आज के तथाकथित उच्च शिक्षित तनाव और अवसादग्रस्त क्यों हैं? कितने फीसदी शिक्षितों को मानवीय गरिमा के अनुरूप रोजगार मिल पा रहा है? देश के कितने फीसदी बच्चे कुपोषण और भूखमरी के शिकार हैं या गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं? कितने फीसदी शिक्षित हत्या, बलात्कार और अन्य गंभीर अपराधों में संलग्न हैं? सर्वाधिक भ्रष्टाचार करनेवाले कौन हैं? वहीं दूसरी ओर यदि बाल्यावस्था में ही दीक्षा दी जाती है और इंसान को इंसान बनाए रखा जाता है, उसे संसार की समस्त बुराइयों से बचाया जाता है, गौरव-गरिमा के साथ उसका संस्कार किया जाता है, उसका अच्छे से अच्छा पोषण किया जाता है, उसे मानव से महामानव बनने की दिशा में अग्रसर किया जाता है, उसे इस काबिल बनाया जाता है कि बडे-बडे श्रेष्ठी भी उसका चरण वंदन करें, ऐसे सदाचारी, उज्ज्वल चरित्र के इंसान बनाने के लिए सारे प्रयत्न होते हैं और वाकई वे बनते हैं; तो फिर इस पवित्र ध्येय और उपक्रम के खिलाफ हायतौबा क्यों?

इसी प्रकार संथारा कोई भी साधु या व्यक्ति मरने के लिए नहीं करता, बल्कि अपने अंतिम क्षणों तक जीवंत, चेतनायुक्त रहने, आत्मा को निर्मल बनाने, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों का शमन कर, अपनी गलतियों के लिए अथवा अपने द्वारा किसी को भी जरासा भी कष्ट पहुंचा हो तो उससे क्षमायाचना पूर्वक बहुत ही प्रफुल्लित व प्रमुदित भाव से आत्मा में रमण करने की एक उपासना पद्धति है, महातप है। और यह तप हरकोई नहीं कर सकता, इसके लिए किसी का दबाव नहीं होता, यह तो स्वयंस्फुर्त होता है और वह भी तब जब शरीर अत्यंत कृश हो गया हो, ऐसी महामारियों ने घेर लिया हो कि बचकर धर्म करते रहने की कोई संभावना नहीं हो, तब किस प्रकार से अपने संयम को बरकरार रखा जाए, मन को क्लेशों से दूर रखकर समभाव पूर्वक, आनंदित रहा जा सके, उसके लिए यह महातप है। यहां पूरी तरह अहिंसा का भाव है, मन शांत है, किसी प्रकार के उद्वेग या आवेग नहीं हैं, जबकि सतिप्रथा व आत्महत्या में हिंसा है, क्रूरता का भाव है, आर्तध्यान-रौद्रध्यान है, वहीं संलेखना-संथारा में धर्मध्यान व शुक्लध्यान है; बिलकुल विपरीत परिस्थितियां हैं।

अतः माननीय न्यायपालिका को इन तथ्यों पर गौर करना चाहिए ताकि उसका गौरव अक्षुण्ण रहे व संविधान व लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का गुरुतर दायित्व वह निभा सके।

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