जीवन में धर्म की जरूरत कितनी, कब और किसलिए है? इन
प्रश्नों पर विचार करना,
यह हर मनुष्य या जो
आत्माएं अपना आत्म-कल्याण करना चाहती हैं, ऐसे
सबके लिए अत्यावश्यक है। प्राणीमात्र को कल्याण की आवश्यकता होती है, इसलिए वे सभी इस प्रश्न पर गंभीर चिंतन करें तो अच्छा
है। परन्तु दुनिया के सभी जीव इस प्रश्न पर या दूसरे भी सभी प्रश्नों पर विचार कर
सकें, यह शक्य नहीं है, क्योंकि सभी जीवों के पास चिंतन करने की शक्ति नहीं
होती। चिंतन करने की शक्ति तो केवल
मनुष्य जीवन में ही संभव है। इसलिए सर्वसाधारण यह चिंतन करे कि उसे जीवन में
सर्वाधिक जरूरत किस चीज की है? गहन चिंतन-मनन करेंगे
तो सहज उत्तर मिलेगा कि ‘शान्ति की’।
धर्म की एक सर्वसाधारण व्याख्या है
कि ‘जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर
शान्ति प्रदान करे, उसे धर्म कहते हैं।’ जीवन में अशान्ति पैदा करने वाली परिस्थितियों के
बावजूद जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके कारण क्रमशः सम्पूर्ण
शान्ति बिना मांगे मिले,
वही धर्मरूप है। जीवन में शान्ति की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है, इसका पता वास्तव में तब चलता है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है।
जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग,
कुछ ऐसे संयोग उपस्थित
होते हैं कि सुध-बुध खो बैठा आदमी अपने मन पर काबू खो बैठता है। उस समय उसकी
बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे अशान्ति की आग घेर लेती
है। ऐसे समय में कितना भी धृष्ट आदमी क्यों न हो, उसे
शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को जो प्राप्त कराए और अशान्ति
को दूर करे, उसे धर्म समझ कर हम चल रहे हैं। ‘यह धर्म अच्छा है और यह खराब’, उसकी चर्चा करने का यह समय नहीं है, क्योंकि जीवन में धर्म
की आवश्यकता यथार्थरूप में जँच जाने के बाद किस धर्म से मुझे सच्ची और शाश्वत
शान्ति मिलेगी और किससे नहीं, इसका विचार सच्चे अर्थी
लोग स्वयमेव करलेंगे।
इसलिए फिलहाल इतना ही पर्याप्त है
कि एक बार जीवन के लिए धर्म की अनिवार्यता तो महसूस हो जाए। जिसके सेवन से जीवन
में अशान्ति का प्रादुर्भाव न हो, अशान्ति-जनक प्रसंग में
भी जिसके प्रभाव से शान्ति प्राप्त हो या किसी तरह अशान्ति का प्रादुर्भाव हो भी
जाए तो वह जिसके कारण चला जाए और जो शान्तिपूर्ण व स्वस्थ जीवन जीने में मददरूप हो
और मृत्यु के समय भी जो शान्ति दे, वह धर्म है। जो शान्ति
से जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है।
इतना होने पर भी दुःख की बात यह है
कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं कि उन्हें इतने
महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव में शान्ति और
अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की प्रवृत्ति हमारे
यहां लगभग बंद सी हो गई है।- आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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