जितने वैरागी होंगे उतने त्यागी ही
होंगे, ऐसा नियम नहीं है। घर-गृहस्थी में
रहने वाला भी वैरागी हो सकता है। नहीं छूटे, छोड
न सके, परन्तु छोडने जैसा माने और कब छूट
जाए, ऐसी भावना का सेवन करे तो वह
वैरागी है। इस पद्धति से कितनी ही आत्माएं वैरागी होने पर भी त्यागी नहीं होती, ऐसा संभव है। किन्तु, त्यागी
तो नियमतः वैरागी होना ही चाहिए।
विरागपूर्वक त्याग ही प्रशंसनीय
है। जो वस्तु हेय है, अर्थात् छोडी जाती है, उन-उन वस्तुओं को लेने के लिए ही छोडते हों तो यह
महाअज्ञान है। संसार-सुख प्राप्त करने के लिए संसार-सुख का त्याग करना, यह किसी भी रूप में प्रशंसनीय नहीं है। संसार के
सुखों का त्याग करने वाले सांसारिक सुखों के प्रति विरागी होने ही चाहिए। विराग
बिना का त्याग संसार को बढाने वाला होता है, इसमें
कोई आश्चर्य नहीं है। यानी त्याग विराग वाला होना चाहिए। यह बात सत्य है।
किन्तु, विरागी
त्यागी ही होना चाहिए, ऐसा नियम बांधा नहीं जा सकता।
विराग बिना का त्याग, त्याग नहीं, ऐसा अवश्य कहा जाता है। सम्यकदृष्टि विरागी होने पर
भी घर-गृहस्थी वाला हो, यह संभव है। वह घर-गृहस्थी को अच्छा नहीं मानता, छोडना चाहता है, लेकिन
कदाचित् किन्हीं कारणों से छोड नहीं पाता और मजबूरीवश रहना पडता है तो भी वह उसमें
रमता नहीं, दृष्टाभाव से रहता है, क्योंकि जब तक चारित्रमोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय
नहीं हो जाता, वह विरागी होते हुए भी त्यागी नहीं
हो सकता। त्याग के लिए उत्तम कोटि का विराग और उसके लिए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का
क्षयोपशम आवश्यक है।
ये विरागी आत्माएं नित्य-प्रति
आत्म-निन्दा करती रहती हैं,
संसार में अपनी फंसावट
को धिक्कारती रहती हैं और सोचती रहती हैं कि मेरा चारित्र मोहनीय कर्म कब क्षय
होगा और कब मैं यह सब छोडकर मोक्षमार्ग का पथिक बन सकूंगा? ऐसी
पुण्यात्माएं संसार में रह कर भी विषयों में अत्यधिक आसक्त नहीं होती, लीन नहीं होती, अपितु
विरक्त भाव से रहती हैं।
उनको स्वयं के विरतिधर न बन सकने
का और धर्माचरण नहीं कर पाने का गहरा दुःख होता है और वे अपनी अधमता पर सोचते हैं
कि ‘मैं विषयासक्त बन गया, अपने आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर न हो सका’। यह आत्म-निन्दात्मक सोच प्रशंसनीय है, क्योंकि यह सन्मार्ग का प्रेरक सोच है। पुण्यात्माओं
के ऐसे आत्म-निन्दात्मक वचनों को आगे करके आप अपनी शिथिलता को छिपाने का प्रयास
करो तो यह उचित नहीं है। आज तो भयंकर विषयासक्ति को अशक्ति और अन्तराय के बहाने
नीचे छुपाने का प्रयत्न होता है। इसीलिए इस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत पडी है। -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें