संसार की असारता समझे बिना धर्म नहीं जचता। जो संसार को अच्छा मानते हैं, उन्हें धर्म कहने के लिए शास्त्रों में मनाही है। ‘ज्ञानसार’ में उपाध्यायजी महाराजा पहले
ही पूछते हैं कि-
बिभेषि
यदि संसारान्, मोक्षप्राप्ति च काङ्क्षसि ।
तदेन्द्रियजयं
कर्तुं, स्फोरय स्फारपौरुषम् ।।
अर्थ : यदि तुम्हें संसार का भय लगा हो, मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा जगी हो तो इन्द्रियों को जय करने के लिए तुम
पुरुषार्थ करो।
पहले सामने वाले को पूछा जाता है कि तुझे संसार असार लगा है? मुक्ति की चाहत है? इन दोनों बातों में जो हां
कहे उसे ही धर्म सुनाया जाता है।
संसार की असारता बताना यह मुनि का पहला धर्म है, ऐसा लगता है या नहीं? मरते-मरते भी संसार को सारभूत
कहने में न आ जाए इसकी मुनि सावधानी रखते हैं। कोई मुनि जरा मंद शक्ति वाला हो तो
कदाचित अपने सहवासी को संसार की असारता नहीं समझा पाए, किन्तु वह खुद के पास से कोई संसार को सारभूत तो न ही समझ जाए, इसकी सावधानी तो रखता ही है न? भूलचूक
से भी स्वयं का सहवासी ऐसा न समझ जाए यह सावधानी तो मुनि प्रतिक्षण रखता ही है।
मुनि ढीला हो तो कडवा कभी न भी कहे, किन्तु
सामनेवाले को खुश रखने के लिए ‘तुम तो बहुत सुखी, तुम्हारा संसार अच्छा है’, ऐसा
तो नहीं ही कहेगा।
मुनिपन लिया है, संसार को खोटा मानता है, आगम हाथ में है, आगम में भी संसार को खोटा कहा
गया है, फिर भी उसके मुँह से दूसरी
बात कैसे निकलती है?
संसार छोडा यह बात सही है, किन्तु उसने जिसकी
आज्ञा से संसार छोडा उसकी निश्रा में रहता तो यह परिणाम नहीं आता; अथवा आगमरूपी प्रकाश का उपयोग किया होता तो यह दशा नहीं आती। किन्तु जिसकी
निश्रा से संसार छोडा उसकी निश्रा छूट गई, आगम
का उपयोग दूर हो गया इसलिए आज यह परिणाम आया।- आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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