अनंत उपकारी महापुरुष फरमाते हैं
कि ‘अहिंसा, संयम
और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिन आत्माओं का अंतःकरण धर्म में सदा लीन रहता
है, उन आत्माओं को देवता भी पूज्य
मानते हैं।’ अहिंसा, संयम
और तप रूप धर्म की उत्कृष्ट आराधना करने की जो शक्ति मनुष्य में है, वह देवों में नहीं है। इसी कारण देव भव से मनुष्य भव
को ऊंचा माना गया है। यह बात बराबर खयाल में आ जाए तो अपना अनुचित वर्तन अखरे बिना
और जीवन सुधरे बिना नहीं रहेगा।
ज्ञानियों ने धर्म के तीन भेद
अहिंसा, संयम और तप बतलाए हैं। उसमें सबसे
पहले तप को समझना चाहिए। तप के साथ संयम आने लगता है और संयम आएगा तो अहिंसा भी
अवश्य आएगी। इसलिए कह सकते हैं कि व्यक्ति जब तक तपस्वी नहीं बनता है अथवा तपस्वी
बनने की इच्छा नहीं करता है, तब तक इंसान नहीं बनता
है। सिर्फ भूखे-प्यासे रहना, उसी को तप नहीं कहा
जाता है। ज्ञानियों ने इच्छा निरोध को तप कहा है। आज अनेक तपस्वियों को यह बात
खयाल में नहीं है। ज्ञानी निर्दिष्ट तप करने का प्रयास किया जाए तो व्यक्ति संयमी
व सच्चा अहिंसक बने बिना नहीं रहेगा। सदाचार की नींव इच्छा
निरोध है। सदाचारी बनने के लिए इच्छाओं का निरोध किए बिना नहीं चलेगा। इच्छा निरोध
का अभाव आदमी को शैतान भी बना दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज मनुष्य का
व्यवहार-वर्तन कैसा है? हम सच्चे मनुष्य हैं या नहीं? इसका विवेक पूर्वक प्रतिदिन थोडा विचार किया जाए तो
स्वयं को खयाल आ सकता है। मनुष्य को स्वयं अपना परीक्षक बनना चाहिए। इसके लिए
अनंतज्ञानियों की दृष्टि का उपयोग करना चाहिए। जैन शासन ने जो दृष्टि बताई है, उस दृष्टि से हम अपने जीवन के परीक्षक बनेंगे तो अनंत
ज्ञानियों ने मनुष्य जीवन की महत्ता का जो हेतु बताया है, उसे
सिद्ध करने के लिए हम प्रयत्न कर सकेंगे।
मनुष्य जीवन की महत्ता का खयाल आए
तो ही मनुष्य का जीवन सुधर सकता है। मनुष्य जीवन को सुधारने वाली चीज अहिंसा, संयम और तप है। अहिंसा, संयम
और तप का जितना अधिक पालन होगा, उतना ही यह जीवन सार्थक
होगा। यह बात हृदय में बैठ जानी चाहिए। जो पदार्थ आत्मा के नहीं हैं, आत्म-स्वरूप में जिन्हें स्थान नहीं है, जो आत्म-स्वरूप या आत्म-गुणों को विकसित करने में
मददरूप नहीं हैं, ऐसे पदार्थों की इच्छा का निरोध
करना, उसी को ज्ञानियों ने सच्चे अर्थ
में तप कहा है। जब तक आत्मा संसार के बंधन में है, शरीर मन के बंधन में है, तब
तक इच्छा हुए बिना नहीं रहेगी। आत्म-श्रेय के लिए आत्म-गुण व आत्म-शक्ति को विकसित
करने के लिए जो इच्छा जरूरी है, उसे रोकना तप नहीं है, बल्कि जो आत्म-कल्याण में बाधक है, उसे रोकना तप है। दुनियावी सुख तथा नाशवंत इच्छाओं का
निरोध करना, उसी का नाम तप है। यह तप आ जाए तो
मानवी, सच्चा मानवी बन जाता है।- आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें