विवेकी आत्मा तो किसी भी जीव के
साथ वैर नहीं बांधता। विश्व के प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव होना चाहिए। किन्तु, किसी के भी साथ में वैर नहीं होना चाहिए। इस संसार
में वैर तो उन वस्तुओं के साथ धारण करना चाहिए, जो
वस्तु सचमुच में दुश्मनरूप ही है। दुनिया के अज्ञानी जीव इसको समझते नहीं हैं।
दुनिया के अज्ञानी जीव सच्चे दुश्मन के साथ लडते नहीं हैं और दुश्मन के उत्पन्न
किए हुए दुश्मन के साथ लडने के लिए तैयार होते हैं, यह
सिंहवृत्ति नहीं है, अपितु श्वानवृत्ति है। सिंह बाण की
तरफ नहीं दौडकर बाण मारने वाले के ऊपर ही धावा बोलता है। जबकि कुत्ता लकडी मारने
वाले के ऊपर नहीं दौडता है,
अपितु लकडी की तरफ
दौडता है। इसी रीति से अज्ञानी जीव भी दुःख के वास्तविक कारण का नाश करने के लिए
प्रयत्नशील नहीं होते हैं,
अपितु दुःख के वास्तविक
कारण-योग से प्राप्त हुई सामग्री का सामना करने के लिए तत्पर बनते हैं। यह
सिंहवृत्ति नहीं, अपितु श्वानवृत्ति है। विचार करो
कि ‘इस संसार में वास्तविक दुश्मनरूप
कौनसी वस्तु है?’ कर्म ही न? कर्म
ही बडे से बडा दुश्मन है,
कारण कि सम्पूर्ण
विपत्तियां इसी के योग से प्राप्त होती हैं।
आत्मा अनादिकाल से इस कर्मरूप
दुश्मन के कारागार का कैदी बना हुआ है। जब तक इस कारागार को भेदकर वह बाहर नहीं
निकलेगा, अर्थात् उससे सर्वथा मुक्त नहीं
बनेगा, वहां तक सभी दुःखों का सम्पूर्ण
अंत असम्भव है।
स्वर्ण का मिट्टी के साथ जैसा
एकमेक रूप योग है। वैसा ही आत्मा का कर्म के साथ योग है, यह
कह सकते हैं। आत्मा चेतन है और कर्म जड है। इन दोनों का जो एकमेक स्वरूप योग है, यही आत्मा का संसार है और उस प्रकार के योग का जो
वियोग है, वही आत्मा का मोक्ष है। मुक्तात्मा
के साथ जडस्पर्श, यह वस्तुतः योग कहलाने के लायक
नहीं है। कारण कि वह आत्मा पर कोई असर नहीं कर सकता है। ऐसा स्पर्श बना रहे, इससे व्यथित होने की जरूरत नहीं। उस प्रकार के योग ही
दुःखदायक हैं, जो एकमेकरूप हैं। दुनिया में जो
कुछ अच्छी-बुरी सामग्री प्राप्त होती है, वह शुभाशुभ कर्म से
प्राप्त होती है। कर्मबद्ध आत्माओं को दुनिया के दुश्मन भले ही परेशान कर सकते हों, किन्तु कर्म-मुक्त आत्मा को समर्थ में समर्थ दुश्मन
भी परेशान नहीं कर सकता।
हमारा कोई अपमान करे, हमें कोई हानि पहुंचाए, तब
अथवा वैसे हरेक प्रसंग पर हमें समझना चाहिए कि ‘यह
तो मेरे दुष्कर्म का उदय है’, ऐसा विचार वैर भाव को
उत्पन्न नहीं होने देता है और वैर भाव कदाचित उत्पन्न हो जाए तो भी वह उसका उपशमन
करने वाला होता है। दुनिया के जीव श्वानवृत्ति को छोडकर सिंहवृत्ति धारण करें, तो दुनिया से बहुत से झगडे समाप्त हो जाते हैं, बहुत से वैर शान्त हो जाते हैं, परिणाम से दुःखमात्र का कारण जो कर्म है, उससे आत्मा सर्वथा मुक्त बन जाता है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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