धर्म इतना मूल्यवान है कि उसकी जरूरत सिर्फ किसी समय विशेष के लिए ही नहीं
होती, अपितु सदा-सर्वदा के लिए होती है। यदि इस जीवन में धर्म नहीं होगा तो यह जीवन
इतना व्यर्थ, तुच्छ और कष्टकारक होगा कि जिसका कोई जोड न हो। ऐसे
आदमी इस दुनिया में बहुत आतंक मचाने वाले सिद्ध होते हैं। हर समय धर्महीन मनुष्य
दुनिया में हिंसक से हिंसक पशु से भी अधिक खतरनाक साबित हुए हैं। इतिहास कभी नहीं
लिखता कि किसी भी पशु ने देश के देश तबाह कर दिए, लेकिन मनुष्य ने
अपनी पापवृत्ति के आधीन होकर कई देशों को नष्ट कर दिया है,
यह एक ऐतिहासिक
सच्चाई है। आप कह सकते हैं कि यह तो राजाओं का काम है, लेकिन ऐसा नहीं है।
धर्म विहीन सभी आत्माएं ऐसा ही करती है।
आप कौन हैं और आपके पास क्या है, इसे भूलकर यदि आप
अपनी मनोवृत्ति की गहराई में जाकर वस्तुस्थिति को सही-सही रूप में जाँचेंगे तो
आपको पता चलेगा। आप में शक्ति न हो, संयोग न हो, साधन का अभाव हो, तो आपसे ऐसे पाप न हों, यह बात अलग है। लेकिन, आप स्वयं ही उस परिस्थिति
में हों तो क्या करोगे, इसे आप अपने हृदय की गहराई
में छिपी वृत्ति के आधार पर जाँचिए। जब आपके पास शक्ति, सामग्री, संयोगादि उपलब्ध हों, तब परीक्षा होती है। अत्यंत
दरिद्र कहे कि ‘मैंने दिवाला नहीं निकाला’,
तो इस बात का कोई
मतलब नहीं है। शायद वह ऐसा भी कहे कि ‘मैंने किसी का पैसा
घर में छुपाया नहीं है’, तो आप उसकी हंसी उडाते हुए
कहोगे कि ‘तुझे पैसा देगा कौन? तुझे तो कोई कर्ज देने वाला
होगा ही नहीं, क्योंकि कर्ज देने वाला देखकर देता है कि मेरा पैसा
वापस चुकाने की उसकी सामर्थ्य है या नहीं?’ इसलिए यह कोई बडाई
की बात नहीं है।
जब भी साधन-सम्पन्न आदमी का कुत्सित चित्र आपके सामने आए तो उस समय उसकी
अपेक्षा अपने को उत्कृष्ट और उसे नीच मानने या कहने के पहले आप सोचिए कि ‘यदि मैं उस परिस्थिति में होता तो मेरी क्या दशा होती?’
अपनी मनोदशा का
विचार करने के साथ दूसरे की परिस्थिति आदि का भी विचार करना चाहिए। उत्तम आत्माओं
की उत्तमता को समझना हो तो भी ऐसा ही वर्तन करना चाहिए। आपकी मनोदशा के आधार पर
दूसरे की करनी का न्यायसंगत माप निकालो, तब आपको उत्तम
आत्माओं की उत्तम दशा का ज्ञान होगा, लेकिन याद रखना कि
उस समय हृदय की अप्रामाणिकता तनिक भी नहीं होनी चाहिए। जिसे यह जीवन कीमती लगता है, उसकी जीवन-साधना कीमती बन जाती है। जिसे कीमती नहीं लगता, वह क्या नहीं करता, यह कह नहीं सकते। वह
जहां-तहां कुछ भी खाकर, जितना हो सके औरों को लूटकर, जितना दे सके उतना दूसरों को दुःख देकर, केवल अपनी ही
स्वार्थ-सिद्धि में लीन रहकर जीवन बिताता है। उसका जीवन कीमती नहीं है, क्योंकि वह पशु-पक्षी से जरा भी बेहतर ढंग से नहीं जीता है।- आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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